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उत्तम मनुष्य पापकर्म के उदय में विषाद को तथा पुण्यकर्म के उदय में हर्ष को प्राप्त नहीं होते। संसार में जैसे बांये और दाहिने भाग से उत्पन्न होने वाले पदार्थों में कुछ भी अन्तर नहीं होता है।
शुभ और अशुभ कर्म मोक्ष प्राप्ति में बाधक है लेकिन जो ज्ञानी मनुष्य है वह अपने अनुरुप आचरण करते हुए श्रद्धा में उसे मोक्ष का कारण नहीं मानते हैं।
इस पद्य में अविचारितरमणीयत्व है।
रजक एष गुणी स्वगुणाम्बरं समरसेन रसेन सता वरम। धहिति धावति नावति कश्मलं ननु विवेकमुपेत्य सुफेनिलम्॥
गुणी मनुष्य एक धोबी है, जो समताभावरुपी पवित्र जल में अपने गुणरुपी वस्त्र को शीघ्र ही धोता है। वह मेल की रक्षा नहीं करता और विवेकरुपी उत्तम साबनि को लेकर गुणरुपी वस्त्र धोता है।
जिस प्रकार धोबी वस्त्र के कालुष्य को दूर करके उसे स्वच्छ निर्मल बनाता है उसी प्रकार गुणवान मनुष्य अपने विवेक से अपनी आत्मा को निर्मल व स्वच्छ करते है।
कवि ने धोबी व गुणवान मनुष्य की बड़ी सुन्दर तुलना की है। इस पद्य का काव्य - सौन्दर्य अनायास प्रतीत हो जाता है। एक अन्य निदर्शन अवलोकनीय है -
सदुक्तिमपि गृहणाति प्राज्ञो नाज्ञो जनः पुनः।
किमकूपारवत् वर्द्धयेविधुदीधितिः।। समीचीन उक्ति को भी बुद्धिमान मनुष्य ही ग्रहण करता है। अज्ञानी नहीं। क्या चन्द्रमा की किरण समुद्र की तरह कूप को भी बढ़ाती है ? अर्थात् नहीं।
जिस प्रकार चन्द्रमा की किरण कूप को नहीं बढा सकती है उसी प्रकार ज्ञानी मनुष्य की बातें भी अज्ञानी मनुष्य नहीं समझ सकता है, क्योंकि उसकी बुद्धि अल्प होती है। वह सारगर्भित बातों को ग्रहण नहीं कर सकता
है।
- यह अविचारित रमणीय का सुन्दर उदाहरण है। अविचारित रमणीय का एक अन्य निदर्शन अवलोकनीय है -
1. जयोदय महाकाव्य, 25/66
2. वही, 28/86
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