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________________ जिस प्रकार कांचली के छोड़ने से सर्पराज की कोई हानि नहीं होती, उसी प्रकार जो सद्बुद्धि, विचारवान् मनुष्य हैं वह शरीर का विनाश होने पर अखण्ड सुख का धारक रहता हुआ आत्मा को स्वीकृत करता है। ___ जिस प्रकार कांचली के छोड़ने पर सांप दुःख का अनुभव नहीं करता, उसी प्रकार जो सद्बुद्धि, विचारवान् मनुष्य है वह शरीर का विनाश होने पर अखण्ड सु का धारक रहता हुआ आत्मा को स्वीकृत करता है। जिस प्रकार कांचली के छोड़ने पर साँप दुःख का अनुभव नहीं करता, उसी प्रकार ज्ञानीजन शरीर के छूटने पर दु:ख का अनुभव नहीं करते, क्योंकि वे सुख से तन्मय आत्मा को शरीर से पृथक अनुभव करते हैं। इस पद्य में दार्शनिक सौन्दर्य है। अतः इसमें भी अविचारितरमणीयता दिखाई देती है। अविचारित रमणीय चमत्कार - संक्षालनप्रोञ्छनयोः प्रवृतस्तनोर्जनोऽयं प्रतिभाँति हृतः। यति सदात्मेकमतिः शरीरसेवायु रेवां न समेति धीरः।। कवि ने संसार में मानव की स्थिति व मुनिराज की स्थिति की तुलना की है। यह संसारी जन हृदय से धोने और पोंछने में संलग्न जान पड़ता है जबकि एक आत्मा में लीन रहने वाले धीरवीर मुनिराज शरीर की सेवाओं में रूचि को प्राप्त नहीं होते। संसारी मनुष्य भोग-विालस में लिप्त हैं। उसे आत्मा का ज्ञन नहीं है जबकि मुनि लोग अपने शरीर का ध्यान नहीं रखते है जबकि वह तो आत्मा में ही लीन रहते हैं। इसमें विना विचार किये ही रमणीयता की प्रतीति हो रही है। अतः यह अविचारित रमणीय का उदाहरम है। एक अन्य उदाहरम द्रष्टव्य है - नहि विषादमियादशभोदये - नहि शुभे सुभगो मुदमानयेत्। जगति सम्प्रति सव्यतदन्यतोः कियदिवान्तरमस्ति च जन्ययोः॥ ज्ञानी मनुष्य सभी अवस्था में एकसा आचरण करते है। वह सुख-दुःख में समभाव से रहते हैं। 1. जयोदय महाकाव्य, 27/9 2. वही, 25/64 (116) 302888888888
SR No.006277
Book TitleAacharya Kshemendra Dwara Pratipadit Chamatkaratva ke Pariprekshya me Aacharya Gyansagar Dwara Virachit Jayoday Mahakavya ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansagar
PublisherDigambar Jain Dharm Prabhavna Samiti
Publication Year2001
Total Pages310
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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