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________________ मुखारविन्दे शुचिहासकेशरे - ऽलिवव स मुग्धो मधुरे मृगीदृशः। प्रसन्नयोः पादसरोजयोर्दृशं निधाय पद्मापि जयस्य सम्बभो॥ कवि ने इस श्लोक में उस समय का वर्णन किया है जब राजा जयकुमार ने राज्य कार्य अपने छोटे भाई विजय को देकर अपना ध्यान प्रजा के हित में लगा लिया था। सुलोचना व जयकुमार सुख पूर्वक अपना वैवाहिक जीवन यापन कर रहे थे। __ वह जयकुमार मृगनयनी सुलोचना के उजवल हासरुपी केशर से युक्त सुन्दर मुखकमल पर भ्रमर के समान मुग्ध होते हुए सुशोभित हो रहे थे और सुलोचना उनके प्रसन्न चरण कमलों में अपनी दृष्टि लगाकर शोभायमान हो रही थी। जिस प्रकार भौरें कमल पर आसक्त कहते हैं उसी प्रकार जयकुमार भी सुलोचना के ऊपर आसक्त था। इस पद्य में बिना विचार किये ही स्वतः अपूर्व कल्पना सौन्दर्य का दर्शन होता है। यहाँ रमणीयता की सहज और झटिति प्रतीति हो रही है। अतः यह अविचारितरमणीयता का सुन्दर निदर्शन है। मन इयान् प्रतिहारक एतकप्रतिरतेनटताद्वशंगः स कः। भुवि जनाभ्यनुरञ्जनतत्परः भवति वानर इत्यथवा नरः।। एक दिन राजा जयकुमार को सांसरिक भोग - विलासों की निस्सारता को देखकर उनके मन में वैराग्य भाव जागता है। ___ मन इतना क्रीड़ा करने वाला है कि इसके प्रपंच के वश में हुआ मनुष्य पृथ्वी पर सदा दूसरों को आनन्दित करने में तत्पर रहता है। ऐसा मनुष्य वानर है या नर, कौन जाने। जिस प्रकार मदारी के द्वारा नया जाने वाला वानर दूसरों का मनोरंजन करता है, उसी प्रकार मन रूप मदारी द्वारा प्रेरित हुआ मनुष्य स्त्री-पुत्र आदि दूसरों को प्रसन्न करने में तत्पर रहता है। यह पद्य अविचारितरमणीयत्व का मञ्जुल दृष्टान्त है। श्लोकस्थ विचारसौन्दर्य का सद्यः भान हो जाता है। न खलु कञ्चुकमुञ्चनतः क्षतिरिहिवरस्य भत्यपि सन्मतिः। स च सुखेशमखण्डसुखी - वहेत्तदिव विग्रहभारविनिग्रहे।। इस श्लोक में कवि आत्मा की महत्ता का वर्णन करते हैं। 1. जयोदय महाकाव्य, 23/5 2. वही, 25/15 3. वही, 25/53
SR No.006277
Book TitleAacharya Kshemendra Dwara Pratipadit Chamatkaratva ke Pariprekshya me Aacharya Gyansagar Dwara Virachit Jayoday Mahakavya ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansagar
PublisherDigambar Jain Dharm Prabhavna Samiti
Publication Year2001
Total Pages310
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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