________________
होता है तो वह अपनी किरणे सर्वत्र फैला देता है। चन्द्रमा की किरणे लोगों के घरों में पहुंच रही है। वह ऐसी प्रतीत हो रही है कि जैसे वह किरणे वेश्याओं से सौन्दर्य की भिक्षा मांग रही है।
उक्त पद्य अविचारित रमणीयता का अपूर्व निदर्शन है। स्नाता सुधाकररुचां निचयैर्दिगेषा, प्राची स्वमूर्ध्नि खलु हिडगुलुलेखलेशा। भास्वत्सुवर्णकलशं तु गृहीतुकामा त्वन्मडगलाय परिभाति विभो ललामा॥
इसमें उस समय का वर्णन है जब चन्द्रमा अस्त हो रहा होता है तथा सूर्य उदय होने वाला होता है।
हे स्वामिन! जिसने चन्द्रमा की किरणों के समूह से स्नान किया है तथा ललाट पर सिन्दूर का तिलक लगा रखा है ऐसी आभूषण स्वरुप यह पूर्व दिशा आपके मङगल के लिए अपने मस्तक पर सूर्यरुप कलश को रखने के लिए उत्सुक जान पड़ती है। .
कवि ने प्रात:काल का कितना सुन्दर वर्णन किया है। जिस प्रकार कोई व्यक्ति प्रातः स्नान करके तिलक लगाकर मङगल कामना के लिए कलश स्थापित करता है, ठीक उसी प्रकार पूर्व दिशा ने भी अपने मंगल कामना के लिए सूर्य रुप कलश को धारण कर लिया।
उपर्युक्त पद्य में बिना विचार किये ही सौन्दर्य की प्रतीति हो रही है। अविचारितरमणीय का मंजुल दृष्टान्त देखिए - श्रीहरिरुरसि शर्मापश्यत सार्द्धभाव उभयापि भृडगस्य।
सातमाय सरिदम्बुधितुल्य तत्वमत्र खलु जीवनमूल्यम्॥
जयकुमार व सुलोचना हस्तिनापुर में सुख पूर्वक अपने वैवाहिक जीवन का आनन्द लेने लगे।
लक्ष्मी ने श्री कृष्ण के वक्षःस्थल पर निवासकर सुख का अभव किया था और पार्वती ने शडकर के अर्धाङगभाग को प्राप्त किया था। सुलोचना ने जयकुमार को उस प्रकार प्राप्त किया था जिस प्रकार नदी समुद्र को प्राप्त करती है।
सुलोचना ने अपना जीवन जयकुमार के साथ एक रुप कर लिया था जिस प्रकार नदी अपने जीवन जल को समुद्र में तन्मयी भाव से अर्पित कर देती है, उसी प्रकार सुलोचना ने भी अपना सबकुछ जयकुमार को अर्पित कर
दिया।
1. जयोदय महाकाव्य, 18/35 2. वही, 22/55
38888888888888888888888888888888888888862
ॐ
89
3
63888888880538333333333338285866633580003
1 14