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विवाह के पश्चात् विदा होकर जा रहे है। मार्ग में उनके सारथी ने वन की शोभा का वर्णन करते हुए कहा -
हे प्रभो ! इधर देखिए, सर्वत्र फैली हुयी मयूरों की पाखें देखने में बहुत मनोहर लग रही है, मानो वे पांखे न होकर आपके वैभव को देखने की अभिलाषा से फैलाये हुए इस वन के नेत्र ही शोभित हो रहे हैं।
मयूर प्रसन्न होकर नाच रहे हैं। उनके पंख ऐसे प्रतीत हो रहे है जैसे वन रूपी नेत्र आपके वैभव को देख रहे हैं। कवि ने मयूर के पंखों से वन के नेत्रों की तुलना का बड़ा ही मनोहारी वर्णन किया है। उपर्युक्त पद्य में अविचारित रमणीय चमत्कार की प्रतीति हो रही है।
सुतनोर्मकरन्दातिशयेन स्माश्रितालिंग जनमिति तेन। श्रितसंसर्गसुखं वियोगसात्पूतकुरुते श्रवणोत्पलं रसात्॥
इस श्लोक में उस समय का वर्णन है जब जयकुमार ने सेना सहित गंगा नदी के तट पर पड़ाव डाला, वहाँ पर कुछ समय रुक कर जल क्रीडा व मनोरंजन किया।
किसी स्त्री के कान पर जो नील कमल लगा हुआ था उसके ऊपर मकरन्द की तीव्र सुगन्ध के कारण भ्रमर गुंजार कर रहे थे। इससे ऐसा जान पड़ता था कि जिसने स्त्री के संसर्ग में सुख का अनुभव किया था ऐसा वह नील कमल जब जल क्रीडा के समय कान से जुदा होने का प्रसंग पाकर दुःख से मानो रो ही रहा हो।
नील कमल की सुगन्ध के कारण भौरे गुंजार कर रहे थे, भोरों का गुंजार ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे कोई प्रियजन से बिछुडने पर रोता है।
यह पद्य अविचारितरमणीय चमत्कार से ओतप्रोत है। एक अन्य निदर्शन अवलोकनीय है - विलासिनीनां प्रतिवीथि आस्यं निरीक्षमाणाः शुचिहासभाष्यम्।
करान्प्रसार्योपगवाक्षमिन्दुः सौन्दर्यभिक्षामटतीष्टविन्दुः।। इसमें कवि ने चन्द्रोदय का वर्णन किया है।
चन्द्रमा की किरणे गली गली में झरोखों के पास पहुंच रही है। उससे ऐसा जान पड़ता है मानो चन्द्रमा वेश्याओं के मुस्कराते एवं मनोभावों को स्पष्ट करने वाले मुख को देखकर किरणरुप हाथ पसारकर उनसे सौन्दर्य की भिक्षा मांगने के लिए घूम रहा है। ..
कवि ने चन्द्रमा के उदय की और संकेत किया है। जब चन्द्रमा उदय 1. जयोदय महाकाव्य, 14/61 2. वही, 15/53
3-2358885656636323888888888888888888888888888
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