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लि कामितदायिनी च यागावनिरित्यत्र पवित्र मध्यभागा। तिलकायितमञ्जूदपिकासावथ रम्भारुचितोरुशर्मभासा॥
इस श्लोक में उस समय का वर्णन है जब जयकुमार व सुलोचना का विवाह होता है। जयकुमार सुलोचना की प्रशंसा करते हुए कहता है।
यह यज्ञभूमिरूपिका नायिका पवित्र मध्यभाग वाली और मनोवांछित सिद्ध करने वाली है। तिलक के स्थान पर इसमें दीपक जल रहा है और कदली के स्तम्भ ही जिसके उरूभाग है।
यहाँ कवि ने सुलोचना की तुलना यज्ञभूमि से की है। जिस प्रकार यज्ञभूमि मनोवांछित सिद्ध करने वाली होती है, उसी प्रकार सुलोचना भी उसी इच्छाओं की पूर्ति करने वाली है। केले के स्तम्भ से उसकी जंघाओं की तुलना की है।
इस प्रकार से वह यज्ञभूमि वनिता के समान सुशोभित हो रही है। यह पद्य अविचारित रमणीय का है।
सदृशा सहितस्ततो हितोऽनुगतो सो नृपतेः सुतैरगात्।
अनुवासनयन्वितोऽनिलः सरसः सम्प्रति शीकरैरिव॥
इस पद्य में उस समय का वर्णन है जब सुलोचना व जयकुमार विदा हो रहे थे और वह ऐसे प्रतीत हो रहे थे।
इसके बाद सुलोचना - सहित तथा राजा अकम्पन के पुत्रो सहित वह जयकुमार आगे बढ़ा जैसे कि पवन सरोवर से कमलों की सुगन्धरूप वासना को लेकर कुछ जल के कणों को साथ लेकर आगे बढ़ता है।
इसमें कवि ने प्राकृतिक सौन्दर्य का बड़े अनुपम ढंग से चित्रण किया है। राजा जयकुमार व पवन की सुन्दर तुलना की है। यहाँ कवि ने जयकुमार को पवन, सुलोचना को सुगन्ध के साथ तथा जल के कणों की राजा अकम्पन के पुत्रों के साथ तुलना बड़ी अनुपम है।
इस पद्य में अविचारितरमणीय चमत्कार की झटिति प्रतीति हो रही हैं। एक अन्य उदाहरण देखिए - विततानि वनस्य भी विभो शिख्यित्राणि मनोहराण्यमुम्।
भवतो विभवं विलोकितुं नयनानीव लसन्ति भूरिशः।
इस श्लोक में उस समय का वर्णन है जब जयकुमार व सुलोचना 1. जयोदय महाकाव्य, 1 2/25, 2. वही 13/19 3. वही 1 3/49
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