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अभ्रान्तरमितमुपत्य वारिभरं समुद्रात् स्वघटे हारि । स्वामिकर्णदेशेऽप्यपूरयद गत्वा लघिममयस्तरामयम् ॥
इस श्लोक में उस समय का वर्णन है जब महाराज अकम्पन का दूत चक्रवर्ती जयकुमार के पास स्वयम्बर- समारोह का प्रस्ताव लाता है और वहाँ से प्रस्थान करके वह महाराज अकम्पन को उनका सन्देश सुनाता है ।
जैसे मेघ द्वारा बरसाये जल को समुद्र से घड़े में भरकर कोई ले जाय, वैसे ही मुद्राओं के अधिकारी चक्रवर्ती के द्वारा कथित भ्रम रहित मनोहर वचन समूह को अपने अंतर में धारण कर वह अत्यन्त क्षिप्रगामी दूत अपने स्वामी के पास पहुँचा और उसने उसे उनके कानों में उड़ेल दिया ।
जिस प्रकार कोई समुद्र से घड़े में जल भरकर ले जाये तो वह जल समुद्र का ही रहेगा। ठीक उसी प्रकार उस दूत ने चक्रवर्ती जयकुमार के वचनों को आत्मसात करके अपने स्वामी को सुना दिया ।
इस श्लोक का काव्यसौन्दर्य व विचार सौन्दर्य विना विचार के ही प्रतीत हो जाता है ।
अविचारितरमणीय का सुन्दर दृष्टान्त देखिए
शशिनस्त्वास्ये रदेषु भानां कर्चानवयेऽपि च तमसो भानाम्। समुदितभावं गता शर्वरीयं समस्ति मदैनकमञ्जरी ॥
इस श्लोक में सुलोचना के सौन्दर्य का अनुपम वर्णन किया गया है।
मुख में चन्द्रमा की दातों में नक्षत्रों की और केशपाश में अन्धकार की सम्मिलित शोभा को पाकर यह सुलोचना साक्षात् रात्रि है या फिर कामदेव की पुष्प कलिका है।
इस श्लोक में कवि बड़ी सुन्दर उपमाओं के साथ सुलोचना के सौन्दर्य का वर्णन किया है । कवि ने सुलोचना को रात्रि के समान बताया है। जिस प्रकार रात्रि में चन्द्रमा नक्षत्र और अन्धकार होता है, ठीक उसी प्रकार सुलोचना का मुख चन्द्रमा की प्रतीति कराता है, दांत नक्षत्रों की, केशपाश अन्धकार की । जिससे वह रात्रि प्रतीत होती है। सुलोचना के सौन्दर्य को रात्रि की उपमा देना बड़ा ही अनुपम है ।
इस श्लोक का काव्य सौन्दर्य व विचार सौन्दर्य बिना विचार के ही प्रतीत हो जाता है ।
1. जयोदय महाकाव्य, 9/94 2. वही 11/93
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