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रविञ्च विच्छाग्य रजोऽन्धकारो मस्यभूव् प्रासतमाधिकारः।
युध्यप्रवीरक्षतलप्रचार: सायं श्रियस्तत्र बभूव सारः॥ इस श्लोक में उस समय का वर्णन है जव राजा जयकुमार तथा चक्रवर्ती का पुत्र अर्ककार्ति का परस्पर युद्ध हो रहा है।
___ उस समय समराङगण में उठी धूल ने सूर्य को भी ढंक लिया और वह सारे आकाश पर छा गयी। ऐसी स्थिति में संग्राम कर रहे वीरों के शरीर से निकलने वाली रक्त की धाराओं ने वहाँ सन्ध्या की शोभा का सार सर्वस्व पा लिया।
कवि ने प्रातः काल में सन्ध्या की शोभा का बड़ा ही अनुपम वर्णन किया है। जिस प्रकार सन्ध्या के समय में सूर्य अस्त हो रहा होता है तथा आकाश में लालिमा दिखाई देती है ठीक उसी प्रकार युद्ध से उठी धूल ने सूर्य को ढक लिया है और वीरों के रक्त ने लालिमा का संचार किया, जिससे हमे सन्धया की प्रतीति होने लगी।
एक अन्य उदाहरण -
भरतभूमिपतेः कुलदीपक इति समडिकततेलसमीपकः। स्वयममुद्रितशुद्धशिखा श्रयः समभवत् सहसा प्रतिभामयः।।
इस श्लोक में उस समय का वर्णन है जब अर्ककीर्ति युद्ध में जयकुमार से हार जाता है। महाराज अकम्पन अपनी दूसरी पुत्री अक्षमाला के लिए अर्ककीर्ति से आग्रह करते है, तब अर्ककीर्ति सोचते है व ज्ञान का प्रादुर्भाव होता है।
इस प्रकार स्नेह रूप तेल से प्रपूरित भारत महाराज का कुल दीपक तेल मिल जाने से दीपक के समान जाज्वल्यमान रुचि बुद्धिरुप शिखा से युक्त (प्रसन्न) हो सहसा स्फुर्तिशाली और चूतिमान हो गया (और बोला)।
इसमें कवि ने बड़ा सुन्दर चित्रण किया है। जिस प्रकार तेल के बिना दीपक जाज्वल्यमान नहीं हो सकता है ठीक उसी प्रकार अर्ककीर्ति को स्नेहरुपी तेल मिलने से वह स्फुर्तिशाली व यूतिमान हो गया। यहाँ कवि ने बड़ी सुन्दर उपमा का प्रयोग किया है।
इस श्लोक में काव्यगत सौन्दर्य बिना विचार के ही प्रतीत हो जाता है।
अविचारितरमणीय की एक और बानगी देखिए - 1. जयोदय महाकाव्य, 8/9 2. वही, 9/24
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