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________________ तृतीय अध्याय "अविचारितरमणीय" और "विचार्यमाणरमणीय " चमत्कार तथा "जयोदय" पं. 'भूरमाल जी ने संस्कृत महाकाव्य-धारा को पुनः प्रवाहित किया है। इनको संस्कृत भाषा का सर्जनकार कहा जाता है। पं. भूरामलजी ने क्षेमेन्द्र द्वारा प्रतिपादित अविचारितरमणीरिय और विचार्यमाणरमणीय चमत्कार की अपने जयोदय महाकाव्य में समीक्षा करके महाकाव्य की बीसवीं शताब्दी का एक आदर्श महाकाव्य बना दिया है। महाकवि की सूक्ष्म कल्पना शक्ति का दर्शन उनकी नीतियों में सहजता से हो जाता है। अविचारितरमणीय चमत्कार की परिभाषा - अविचारितरमणीय वह चमत्कार है जिसकी बिना विचार किये ही चमत्कार की प्रतीति हो जाये तथा मस्तिष्कीय व्यायाम किये बिना ही उसका स्वरुप समझ में आ जाये, जिसको कोई भी सहृदय व्यक्ति अनायास मसझ सके उसको ही अविचारितरमणीय चमत्कार कहते हैं। उद्धतसद्भलिधनान्धकारे शम्पा सकम्पा स्म लसत्युदारे। रणाङगणे पाणिकृपाणमाला चुकूजुरेव तु शिखण्डिबालाः॥ इस श्लोक में उस समय का वर्णन है जब राजा जयकुमार तथा चक्रवर्ती का पुत्र अर्ककीर्ति का परस्पर युद्ध आरम्भ होता है। उड़ी हुई धूल के कारण मेघ की भाँति अन्धकाराच्छन्न विशाल रणाङगण में योद्धाओं के हाथों में कम्पमान तलवारों की माला चमक रही थी। किन्तु मोरों के बच्चे उन्हें बिजली समझ कर केकावाणी बोलने लगे। यहाँ पर कवि ने प्राकृतिक सत्य का बड़े सुन्दर ढंग से चित्रण किया है। क्योंकि वर्षा के समय बिजली चमकती है तो मोर प्रसन्न होकर केकावाणी करने लगते हैं, किन्तु यहाँ पर कवि ने युद्ध के समय वही कल्पना कर दी है र मोर के बच्चे युद्ध में तलवारों की चमक को बिजली समझकर प्रसन्न होकर बोलने लगते हैं। इस श्लोक का विचार सौन्दर्य बिना विचार किये ही प्रतीत हो जाता है। 1. जयोदय महाकाव्य, 8/8
SR No.006277
Book TitleAacharya Kshemendra Dwara Pratipadit Chamatkaratva ke Pariprekshya me Aacharya Gyansagar Dwara Virachit Jayoday Mahakavya ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansagar
PublisherDigambar Jain Dharm Prabhavna Samiti
Publication Year2001
Total Pages310
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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