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सिताश्रितं दुग्धमिवादरेण निपीयते संगमिनापरण। अयोभितां तर्कमिवात्र नक्रसंकोचतः श्रीशशिरश्मिचक्रम।
कवि ने अलंकारों के माध्यम से काव्य में प्रभात वर्णन व अन्य वर्णनों को चारुत्व पूर्ण बना दिया है। इस श्लोक में श्लेष से अर्थान्तरन्यास का सुन्दर उदाहरण है।
विस्फूर्तिभन्नृवर किन्नवदगुरेषु प्रागुत्थितो वियति शोणितकोपदेशः। श्री सजनो नुभवतो मधुमेह पूर्ति भो राजसग्विजयिनस्तव भाति मूर्तिः।।
आचार्यों ने अलंकारों को काव्यशोभाकर, शोभातिशायी इत्यादि कहा है। शब्दों को सुन्दर बनाने के लिए अलंकार सहायक होते हैं। शास्त्रीय पाडित्य के बिना अलंकारों का प्रयोग करना नितान्त कठिन कार्य है। कवि लोग अलंकार की भाषा और अर्थ की सौन्दर्य वृद्धि करके उनमें चमत्कार उत्पन्न करते हैं। इतना ही नहीं वे रस भाव आदि को उत्तेजित करने में सहायक सिद्ध होते हैं। आचार्य ज्ञानसागर जी अलंकार शैली के श्रेष्ठ कवि हैं। ये श्लेषालंकार का प्रयोग करने में सिद्धहस्त हैं। इन्होंने अपने काव्य में सभी अलंकारों का प्रयोग बड़ी कुशलता से किया है।
इस महाकाव्य छन्दशास्त्र की मंजूषा है। इस महाकाव्य में वार्णिक शब्दों के प्रयोग के साथ मात्रिक छन्दों का समुचित विन्यास हुआ है। कवि ने अपनी नवनवोन्मेषशालिनी प्रतिभा के बल पर काव्य में नये - नये प्रयोग किये है। यह जयोदय महाकाव्य इस शताब्दी की सर्वश्रेष्ठ काव्यकला का निदर्शन है। यह प्राचीनता के साथ नवीनता का असाधारण समन्वय प्रस्तुत करता है। अपारे काव्य संसारे कविरेव प्रजापतिः इस उक्ति को चरित्रार्थ करना है तो वह जयोदय महाकाव्य है।
आचार्य ज्ञान सागर जी का पाण्डित्य एवं वैदग्ध्य का पूर्ण परिचय काव्य की उदात्ता का परिचायक है। यह महाकाव्य अलंकारों की मंजूषा, चक्रवन्धों की वापिका, सूक्तियों और उपदेशों की सूरम्य वाटिका है।
महाकवि ने अपने काव्य में वर्णित अनेक घटनाओं को अपने जीवन अनुभवों से संवारा है। महाकवि आचार्य ज्ञान सागर जी ने अपने काव्यगत सौन्दर्य से जयोदय महाकाव्य को अनर्थ्य मणि के रुप में देदीप्यमान मना कर दिया है।
यह जयोदय महाकाव्य कृति भाव, भाषा काव्य सौन्दर्य, रस परिपाक, वर्णन वैचित्र्य, अलंकार प्रयोग, छन्द-विन्यास, शास्त्रीय ज्ञान आदि सभी दृष्टियों से अनुपमेय है। 1. जयोदय महाकाव्यम् 16/9 2. वहीं 18/22
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