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________________ चषक सम्मुख पाकर पाठक उसी में रम जाता है। अष्टम सर्ग में वीररस का सागर लहराता है। पूरा का पूरा सर्ग वीर रस से भरा पड़ा है। उद्धर सद्धलिघनान्धकारे शम्पा सकम्पा स्मलसत्युदारे। रगाडगुणे पाणिकृपाणमाला चूकूजुरेवं तु शिखण्डिमालाः॥ जयोदय महाकाव्य में शान्तरस का प्रयोग प्रथम सर्ग व अन्तिम सर्ग में किया है। इस महाकाव्य में अंगी रस शान्त है। श्रृंगार, वीर एवं अन्य रस उसके पोषक है। कवि कल्पना करता है कि नववयस्का पश्चिम दिशा वृद्ध पति सूर्य को पसन्द नहीं करती है। सूर्य प्राची दिशा का स्वामी भी है। अतः पश्चिम दिशा अन्यनायिकासक्त नायक को भी नहीं चाहती है। इसलिए वह उसे क्षण भर के लिए भी अपने पास नहीं रहने देना चाहती है। उसे अपने आकाश रुपी घर से निकाल देना चाहती है। प्राचीनतातोऽप्यनुरागवन्तं प्रतिश्रणव्येव नवा दगस्तम्। निष्काशयत्याशु नभोनिकायात् सहस्त्ररश्मि चरमा दिशा या। रात्रिवर्णन में कवि ने श्लेष आदि अलंकारों की सहायता से कल्पनाओं को साकार रुप दिया है। न दृश्यते क्वा प्युडूपस्तथा स प्रदोषभावातरणेविनाशः। नदीपरुपे तिमिरे बुडन्ति चलषि नृणां विकलान्त सन्ति।। यहाँ पर उडुप का अर्थ - नौका तथा चन्द्रमा, तरणेविनाशः नौका तथा सूर्य का तिरोभाव, नदीप - समुद्र एवं द्वीपों का अभाव, तिमिरे अन्धकार में, मगरमच्छों से भरे। इस प्रकार अर्थ हुआ है। चन्द्रोत्सव के वर्णन में कवि ने नूतन उदभावनाओं की रत्न मंजूषा संजोदी है। वक्रोक्ति का सुन्दर उदाहरण इन पंक्तियों की रत्न में देखिए माडपहर कुचग्रन्थि किमपास्ता तेऽस्ति हृदग्रन्थिः।। कवि की लेखनी इतनी महान है कि उन्होंने एक साथ तीन अलंकारों का प्रयोग किया है। इस श्लोक में श्लेष, अनुप्रास और रुपक का एक साथ प्रयोग बड़ी कुशलता से किया है। सविभ्रमां योवनवारिवेगां वधूनदी भो श्रृणुवीर! में गाम्। उदारश्रृंडगारतरङ्गसेनां को त्येतुमीशः शुचिहासफेनाम्। उल्लेख अलंकार पूर्वक उपमालंकार तथा अनुप्रास इन तीनों का वर्णन इस श्लोक में बड़ा स्वाभाविक किया है। 1. जयोदय महाकाव्यम् 14/8 2. वहीं 8/8 3. वही 15/18 4. वही, 15/21 5. 16/20 1286550 www000388888888888888
SR No.006277
Book TitleAacharya Kshemendra Dwara Pratipadit Chamatkaratva ke Pariprekshya me Aacharya Gyansagar Dwara Virachit Jayoday Mahakavya ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansagar
PublisherDigambar Jain Dharm Prabhavna Samiti
Publication Year2001
Total Pages310
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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