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महापुराण एक पौराणिक शैली पर लिखा गया है जिसमें वंश परम्परानुसार पीढ़ियों का वर्णन है जबकि आचार्य ज्ञान सागर जी ने उसे पौराणिक शैली में न लिखकर काव्य की शैली में लिखा है।
कवि का काव्य - कौशल है कि वह लौकमङगलकारी आदर्श विषयवस्तु की रसात्मा को समुचित भाषा के माध्यम से इस प्रकार प्रतिपादित करना कि वस्तुतत्त्व रसिक जनों के चित्त में उतर सके। साहित्य वह कृति है जो श्रोता अथवा पाठक के मनोवेगों को तरंगित करने में समर्थ होती है।
जयोदय महाकाव्य में नवीन शैली के पदे - पदे दर्शन होते हैं। विशेषकर रसों, कल्पनाओं - अलंकारविन्यास, छन्दोयोजना एवं भाषा के प्रयोग में नूतन व अनुपम मार्ग अपनाया गया है। .
जयोदय महाकाव्य में प्रकृति का मनोहारी वर्णन किया गया है। कवि को प्रकृति का कुशल चितेरा माना जाता है। कवि ने जयोदय महाकाव्य के पन्द्रहवें सर्ग में सूर्यास्तमनबेला का प्रभावशाली वर्णन किया है। सूर्य पश्चिम दिशा में पहुँचा तो कमलिनी अपनी सपत्नी के सौभाग्य को देखकर ईर्ष्या से सिगुड़ गई।
कवि ने उत्प्रेक्षा के द्वारा इस कल्पना का विचित्र वर्णन किया है। सरोजिनी कुड्मलितां दिशायाः समीक्ष्य साश्चर्यमिति स्मितायाः।
मन्ये प्रतीच्या अधुनावभातितमामुदात्ताधरबिम्बकान्तिः॥
कवि ने अपने काव्य में रसों का समुचित प्रयोग किया है क्योंकि काव्य में रसध्वनि के बिना अलंकार मृतक स्त्री के अलंकार की भाँति निष्फलता की स्थिति बनाते हैं। रस रूपी आत्मा के रहने पर ही अलंकारों का महत्त्व होता है।
महाकवि आचार्य ज्ञानसागर जी ने चौदहवें सर्ग के द्वितीय श्लोक के माध्यम से श्रृङ्गार रस के उददीपक उद्यान के सौन्दर्य रूपी विभाग को दर्शाया है। श्रृङ्गार के प्राप्त होने पर तटोद्यान में आया शिष्टजन समूह काम श्रृङगार रस से व्याकुल हो गया। विरोधाभास अलंकार के द्वारा इसे भव्य भावभूमि पर सजाया गया है। श्लेष की सहायता से विरोध का परिहार हुआ है।
असुगतवेभवानिव तेन तत्र तथागतसमीरणेन। समर्जान सुरतविचारविशिष्टो दूरतो पि चायातः शिष्टः।।
कवि ने श्रृंगार रस का प्रचुर मात्रा में प्रयोग किया है। श्रृंगार रस का 1. जयोदय महाकाव्यम, 15/5
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