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________________ इससे कथानक का विस्तार नहीं हो पाया और काव्य का प्रयोजन भी सिद्ध हो गया । कवि ने कथानक को हृदयंगम बनाने के लिए जयकुमार व सुलोचना के पूर्व जन्मों के विस्तृत वर्णन का सिर्फ उल्लेख कर कथानक को जटिल व अनावश्यक बोझ से मुक्त करके सरस बना दिया है। जिससे पाठक को कथा को समझने में आसानी हो जाती है । कवि ने नायक के चारित्रिक उत्कर्ष के लिए कुछ घटनाओं को अपने काव्य में नहीं लिया है। जैसे महापुराण में जयकुमार एक शुष्क वृक्ष पर बैठे सूर्याभिमुख कौए को रोते देखकर अनिष्ट की सोच से अचेत हो जाते है।' इस घटना को कवि ने इसलिए छोड़ दिया क्योंकि इससे धीरोदात्त नायक के धैर्य की रक्षा हो सके । महापुराण में महेन्द्रदत्त कंचुकी सुलोचना को स्वयंबर सभा में राजाओं से परिचित कराता है। जबकि जयोदय में स्वर्ग से आयी हुई विद्यादेवी ने सुलोचना के सम्मुख अयोध्या, कलिंग, सिन्धु, काश्मीर, मालव आदि राजाओं का विस्तृत परिचय कराया है। यह कवि की मौलिक कल्पना है जो उन्होंने राजाओं का इतना विस्तृत व विद्यादेवी से परिचय करवाया, क्योंकि कंचुकी जैसे बूढ़े ब्राह्मण इतने सुरुचिपूर्ण ढंग से वर्णन नहीं कर सकते थे जितना विद्या देवी, बुद्धिदेवी कर सकती थी । कवि ने नारी की पथदर्शिका नारी को ही बनाये जाने से नारी की महानता, विद्वता, शालीनता के दर्शन होते हैं । महापुराण में सुलोचना के रूप सौन्दर्य एवं विवाह का संक्षेप में वर्णन मिलता है । जयोदय महाकाव्य में ज्ञानसागर जी अपनी कल्पना शक्ति से इसको और प्रभावपूर्ण बढ़ाने के लिए विस्तृत वर्णन किया है तथा विवाह के एक-एक प्रसंग को बड़ी सुन्दरता के साथ काव्य में पिरोया है। श्रृंगारिक वर्णन से काव्य का कथानक रूचिकर हो गया है । • महापुराण में जयकुमार ने अपने महल की छत पर एक कृत्रिम हाथी में बैठे हुए विद्याधर दम्पत्ति को देखा । जबकि कवि ने कृत्रिम हाथी की जगह आकाश विमान में विद्याधर दम्पत्ति को दिखाया है । महापुराण में जयकुमार के वैराग्य चिन्तन का संक्षेप में वर्णन मिलता है। आचार्य ज्ञानसागरजी ने जयोदय में वैराग्य का वर्णन एक सर्ग में किया है। जिससे काव्य में शान्त रस की मधुर धारा प्रवाहित हो गयी और मुक्ति के 1. महापुराण भाग - 2, 45 / 139-141, 2. वही, 43/301-308 3. जयोदय, 6/6-118 4. महापुराण भाग - 2, 43 / 137-337 6. महापुराण 46/1 7. जयोदय 23/10 5. जयोदय, 3/30-116 8. जयोदय 25/1-87 104
SR No.006277
Book TitleAacharya Kshemendra Dwara Pratipadit Chamatkaratva ke Pariprekshya me Aacharya Gyansagar Dwara Virachit Jayoday Mahakavya ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansagar
PublisherDigambar Jain Dharm Prabhavna Samiti
Publication Year2001
Total Pages310
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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