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________________ पहुँच कर जयकुमार ने भगवान ऋषभदेव के चरणों का सान्निध्य पाकर हर्ष से जयकुमार के नेत्रों मे आसूं छलक उठे। भक्ति व विनय पूर्वक भगवान की स्तुति की और कल्याण मार्ग के विषय में पूछा। सप्तविंशतितम सर्ग - भगवान ऋषभदेव ने जयकुमार को धर्म का उपदेश दिया। भगवान के उपदेश को आत्मसात करके दृढ़ता पूर्वक आत्म कल्याण के मार्ग पर अग्रसर हो गया। अष्टाविंशतितम सर्ग - जयकुमार ने बाह्य परिग्रहों का परित्याग कर दिया और घोर तपस्या करने लगा। उसने अपने मन पर विजय प्राप्त कर ली। उसके दैगम्बरी दीक्षा भी धारण कर ली। अन्त मे वह गणधर पद पर प्रतिष्ठित हो गया। पति के वियोग से व्याकुल सुलोचना ने सम्राट भरत की प्रधान महिषी सुभद्रा के समझाने पर ब्राह्मी नाम की आर्या के समीप दीक्षा धारण कर ली। और बहुत समय तक तप करने के पश्चात् स्वर्ग में अच्युतेन्द्र के रूप में पहुँच गयी। जयोदय महाकाव्य के कथनांक का वैशिष्ट्य - आचार्य ज्ञान सागर जी ने जिनसेन प्रथम द्वारा प्रणीत महापुराण में पल्लवित ऋषभदेव - भरतकालीन जयकुमार एवं सुलोचना के पौराणिक कथानक को जयोदय महाकाव्य में पुष्पित किया है। जयोदय महाकाव्य का नामान्तर सुलोचना स्वयंबर महाकाव्य भी है। जयोदयापरसुलोचनास्वयंबर महाकाव्य एकविंशतितमः सर्गः। इसके अन्य उपजीव्य साहित्य में उल्लेख है - महासेनवृत सुलोचना कथा (वि. सं. 800) गुणभद्रकृत महापुराण के अन्तिम पाँच पर्व तैंतालिस से लेकर सैंतालीस तक में जयकुमार और सुलोचना की रोचक कथा की गई है। (वि. सं. 900) हस्तिमल्लकृत विक्रान्त कौरव (वि. सं. 1250), वादिचन्द्रभट्टारकं कृत सुलोचना चरित (वि. सं. 1671) कामराज प्रणीत जयकुमार चरित (वि. सं. 1710) तथा ब्र प्रभुराज जयकुमार चरित, महाकवि पुष्पदन्त द्वारा विरचित महापुराण भाग - 21 __महापुराण ही जयोदय की कथा का स्रोत है। जयोदय की कथा महापुराण (भाग 2) से ?अधिक मान्य है। इसके कथानक का आधार मूलतः श्री जिनसेनाचार्य गुणभद्राचार्य कृत महापुराण (आदिपुराण भाग 2) है। आचार्य ज्ञान सागर जी ने अपने जयोदय महाकाव्य में नव नवोन्मेषशालिनी प्रतिभा के प्रयोग से उनमें यत्र - तत्र परिवर्तन एवं परिवर्धन भी किये हैं जिससे उनका महाकाव्य का कथानक और ज्यादा रोचक व 536583583633283256565665668636363956896580003560020400206666666666666666666666664 1 0 0 2808080808083
SR No.006277
Book TitleAacharya Kshemendra Dwara Pratipadit Chamatkaratva ke Pariprekshya me Aacharya Gyansagar Dwara Virachit Jayoday Mahakavya ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansagar
PublisherDigambar Jain Dharm Prabhavna Samiti
Publication Year2001
Total Pages310
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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