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उन्होंने देखा कि भीम नाम के मुनि राजं तपस्या कर रहे हैं । उन्होंने बताया कि जब वह देव सुकान्त रुप में जन्मा था तब वह उसके भवदेव नाम के शत्रु थे और हिरण्यवर्मा के जन्म के समय में विद्युच्चोर नाम के शत्रु थे । इस समय वह भीम रुप में उत्पन्न हुये हैं । सुलोचना ने कहा कि जयकुमार ही सुकान्त, रतिवर कबूतर, हिरण्य वर्मा और स्वर्ग के देव के रुप में उत्पन्न हुआ था ।
सुलोचना से अपने पुनः जन्मों के बारे में जानकर जयकुमार बहुत प्रसन्न हुआ। इसके बाद दोनों को दिव्य ज्ञान की प्राप्ति हो गयी ।
चतुविशंतिर्वितम सर्ग विद्यायें प्राप्त करने के पश्चात् जयकुमार, सुलोचना विमान द्वारा पर्वतों और तीर्थों पर विहार करने के लिये गये । कुलाचलों की यात्रा के बाद वे दोनों हिमालय पर्वत पर पहुँचे । वहाँ उन्होंने जिनेन्द्र देव का मन्दिर देखा। जयकुमार ने जल चन्दन आदि आठ द्रव्यों से भगवान जिनेन्द्र देव की पूजा कर भक्ति विभोर होकर स्तुति की। मन्दिर से निकलकर पर्वत पर विहार करते हुये सुलोचना जयकुमार से कुछ दूर हो गयी । सोधर्म इन्द्र की सभा में जयकुमार के शील की प्रशंसा की जा रही थी जिसे सुनकर रतिप्रभ नामक देव ने अपनी पत्नी कांचना को जयकुमार के शील की परीक्षा लेने भेजा। उसने आकर अपनी काल्पनिक जीवन कहानी सुनाकर तथा भिन्न भिन्न काम चेष्टाओं से विचलित करना चाहा किन्तु जयकुमार के मन में उसके वचनों और चेष्टाओं का कोई प्रभाव नहीं पड़ा। जयकुमार ने उसके व्यवहार की निन्दा की तथा स्त्रियोचित धर्म पालन करने की शिक्षा दी। जयकुमार के बचनों को सुनकर उसने क्रोध पूर्वक जयकुमार को उठा लिया और जाने लगी। इसी बीच सुलोचना ने उसे बहुत फटकारा । सुलोचना के शील से उसने जयकुमार को छोड़ दिया और चली गयी। रतिप्रभा ने जब अपनी पत्नी कांचना से जयकुमार की पूजा की । तीर्थों व पर्वतों पर विहार करके जयकुमार व सुलोचना अपने नगर वापिस लौट आये । किन्तु जयकुमार के मन में वैराग्य भाव की उत्पत्ति हो गयी ।
पंचतिशतितम सर्ग - संसार की क्षणभंगुरता को देखकर जयकुमार के मन में वैराग्य भाव जाग उठा । वस्तुतत्व का चिन्तन करते हुये संसार परित्याग का दृढ़ निश्चय कर लिया तथा वन में रहकर जीवन यापन करने का विचार किया ।
षड्विंशतितम सर्ग - जयकुमार ने समारोह पूर्वक अपने पुत्र अनन्तवीर्य का राज्याभिषेक किया और उसे राजनीति का उपदेश दिया। इसके पश्चात् वह स्वयं वन में चला गया । हस्तिनापुर की प्रजा ने राजा जयकुमार के चले जाने पर शोक व अनन्तवीर्य के राजा बनने पर हर्ष का अनुभव किया। वन में
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