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________________ को आशीर्वाद दिया। महिलाओं ने अनेक सौभाग्य गीत गाये । दासियों एवं स्त्रियों ने हास परिहास के साथ बारातियों को भोजन कराया। काशी नरेश ने जयकुमार व बारातियों का हृदय से अतिथि सत्कार किया । त्रयोदश सर्ग - विवाह के पश्चात् जयकुमार ने अपने श्वसुर महाराज अकम्पन से जाने की अनुमति मांगी। सुलोचना के माता पिता ने अश्रुपूरित नेत्रों से अपनी पुत्री को विदा किया। माता पिता उन्हें छोड़ने के लिये के तालाब के समीप तक गये । - सुलोचना के भाई भी सुलोचना के साथ थे। जयकुमार के सारथि ने मार्ग में स्थित वन और गंगानदी के वर्णन से जयकुमार का मनोरंजन किया । राजहंसो से सेवित एवं कमलिनियों से सुन्दर बनी हुई गंगा नदी में गजराज जल क्रीडा कर रहे थे। जयकुमार ने गंगा नदी के तट पर सेना सहित पड़ाव डाल दिया । - चतुर्दश सर्ग जयकुमार, सुलोचना एवं उनके साथियों ने वहाँ पर वन की शोभा का भरपूर आनन्द उठाया । वन क्रीड़ा, जल क्रीडा एवं मधुर शब्दों से अपना मनोरंजन किया। सायंकाल गंगा जल में स्नान करने के पश्चात् सभी ने नवीन वस्त्र धारण किये। - पंचदश सर्ग - सूर्य के अस्त होने पर सन्ध्या का आगमन हुआ उसके बाद रात्रि का घोर अन्धकार चारों तरफ फैल गया । अन्धकार होने पर सब लोगों ने अपने तम्बुओं में दीपक जलाने प्रारम्भ कर दिये । चन्द्रमा का उदय होने पर स्त्री पुरुष परस्पर विहार करने लगे । परस्पर हास षोडश सर्ग - रात्रि के मध्य में स्त्री पुरुषों ने मान मर्यादा छोड़ दी । विलास करते हुये उन्होंने मदिरा पान प्रारम्भ कर दिया। मदिरापान से उनकी चेष्टायें विकृत हो गयी, नेत्र लाल हो गये । स्त्री पुरुष परम्पर प्रेम व्यवहार करने लगे । सप्तदश सर्ग - सभी युगल प्रेमी एकान्त स्थान में चले गये । जयकुंमार सुलोचना एवं अन्य स्त्री पुरुषों ने सुरतं क्रीडाये की । अर्द्धरात्रि में सबने निद्रा देवी की गोद में विश्राम लिया । अष्टादश सर्ग प्रात:काल की मधुर बेला का आगमन हुआ । तारे विलीन हो गये, चन्द्रमा अस्त हो गया । सूर्योदय हुआ । लोग निद्रा रहित होकर अपने - अपने काम में लग गये। 98 एकोनविंश सर्ग - प्रात:काल जयकुमार ने स्नानादि क्रियाएँ की । तत्पश्चात् वह जिनेन्द्रदेव की पूजा अर्चना आदि कार्य में संलग्न हो गये और बहुत समय तक श्रद्धा पूर्वक जिनेन्द्र देव की स्तुति की। जिनेन्द्र देव की स्तुति ·
SR No.006277
Book TitleAacharya Kshemendra Dwara Pratipadit Chamatkaratva ke Pariprekshya me Aacharya Gyansagar Dwara Virachit Jayoday Mahakavya ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansagar
PublisherDigambar Jain Dharm Prabhavna Samiti
Publication Year2001
Total Pages310
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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