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दोनों बाणों से अर्ककीर्ति को बांध दिया । और जयकुमार विजयी हो गये । युद्ध से लौटकर काशी नरेश ने सुलोचना को जयकुमार के विजयी होने का शुभ समाचार सुनाया। इसके बाद सब लोगों ने जिनेन्द्र देव की पूजा की। नवम सर्ग जयकुमार की जीत और अर्ककीर्ति की पराजय से महाराज अकम्पन को चिन्ता हुई की अर्ककीर्ति को कैसे प्रसन्न किया जाये । उन्होंने विचार किया कि अपनी छोटी पुत्री अक्षमाला का विवाह अर्ककीर्ति से कर दिया जाये। उन्होंने विनयभाव से अर्ककीर्ति को समझाया और अक्षमाला को स्वीकार करने के लिए कहा। जयकुमार ने भी अर्ककीर्ति से प्रीतियुक्त विनम्र वचन कहे । काशी नरेश ने जयकुमार व अर्ककीर्ति की सन्धि करा दी। काशी नरेश अकम्पन ने अपने सुमुख नाम के दूत को भरत चक्रवर्ती के पास भेजा । सुमुख ने काशी नगरी का वृत्तान्त बडी नम्रता से भरत को सुनाया और महाराज अकम्पन की ओर से क्षमायाचना की । सम्राट भरत ने राजा अकम्पन और जयकुमार की बुद्धिमत्ता की प्रशंसा की और उनके निर्णय को उचित बताया । दूत ने सम्राट भरत से आज्ञा लेकर काशी नगरी में प्रस्थान किया और काशी नरेश को अयोध्या में हुयी वार्ता का उल्लेख किया ।
दशम सर्ग - तत्पश्चात् काशी नरेश के यहाँ विवाह की तैयारी होने लगी । सारी नगरी को धूम धाम से सजाया गया। सारी नगरी दुल्हन की तरह प्रतीत होने लगी। तरह तरह के बाजे बजने लगे। सुलोचना ने स्नान करके रेशमी वस्त्रों और अनेक आभूषणों को धारण किया और माता पिता के सम्मुख जाकर उन्हें प्रणाम किया ।
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जयकुमार जब सम्पूर्ण आभूषणों से युक्त होकर बारात सजाकर नगर मार्ग से निकले तो प्रजाजन उनको देखने की इच्छा से उत्साहित हो रही थी । राजद्वार में पहुँचते ही बन्धों द्वारा आदर पूर्वक जयकुमार को मण्डप में लाया गया। और सुलोचना को भी मण्डप में लाया गया ।
एकादश सर्ग - जयकुमार ने सुलोचना के रूप सौन्दर्य का अवलोकन किया। वह सुलोचना के रूप से अत्यधिक प्रभावित हुआ तथा जयकुमार ने अपने मुख से सुलोचना के मुख, स्तन, नख, शिख, जघनभाग, नाभि, ओष्ठ आदि सभी अंगो का अलग अलग वर्णन बड़ी कुशलता के साथ किया । द्वादश सर्ग - जयकुमार व सुलोचना ने जिनेन्द्र देव का पूजन किया। पुरोहित के कहने पर महाराज ने अपनी पुत्री का हाथ जयकुमार के हाथ में दे दिया, खुशी के इस अवसर पर उन्होंने धन की वर्षा कर दी और दहेज में कोई कमी नहीं रहने दी । उपस्थित प्रजाजनों के सम्मुख गुरुजनों ने वर वधु
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