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कभी कभी तो असभ्य और अज्ञानी जनों के द्वारा उपहास करके साधुओं को परेशान भी किया जाता है किन्तु समता के धारक मुनिजन उन पर रुष्ट नहीं होते तथा चक्र, कृपाण, धनुष, दण्ड मुद्गर आदि से पीटे जाने पर भी जो मारने वालों के प्रति रोष भी नहीं करते तथा पूर्वजन्म के पाप कर्मों का फल समझकर पीड़ित होते रहते हैं क्योंकि वे आत्मा को अमर मानते हैं और शरीर को क्षणभङ्गर इस हालत में मृत्यु हो जाने को वध परीषह कहते है । उसे सहन करना समदर्शी महर्षि अपना कर्तव्य समझते हैं, काया के प्रति उनकी यह धारणा रहती है - "समतत: क्षतिरस्ति न काचन चरण बोदकशो ध्रुवकाश्चन" इसका यदि बध हो तो हो पर इससे मेरा नाश कहाँ ?
बोध धाम हूँ चरण सदन हूँ दर्शन का अवकाश यहां
आचार्य प्रवर याञ्चा (याचना) परीषह का प्रतिपादन करते हुए अभिव्यञ्जित करते हैं । तप में संलग्न जिनका शरीर अत्यन्त क्षीण हो गया है, क्षुधा से सन्तप्त होने पर भी जो आहार तथा औषध आदि की कहीं याचना नहीं करते-वे चर्या (विहार) करने पर भी उपवास ही धारण किये रहते हैं । उन्हीं के द्वारा याचना परीषहजय प्रशस्त और प्रशंसनीय है। .
व्रजति चैव मुनिर्मूगराजतां, जिनपरीषहकः मुनिराजताम् - यदि न चेल्लघुतामुपहासतां, सुगत एव मतो शुभ हा सताम् याञ्चा परीषह विजयी मुनिवर-समाज में मुनिराज बने, स्वाभिमान से मण्डित जिसविध हो वन में मृगराज तने । याज्जा विरहित यदि ना बनता जीवन का उपहास हुआ, विरत हुआ पर बुध कहते वह गुरुता का सब नाश हुआ”
आचार्य विद्यासागर जी अलाभ परीषह का उज्ज्वल विश्लेषण करते हैं । और उसके महत्त्व का भी प्रतिपादन करते हैं -
अलाभ परीषह का स्वरूप प्रस्तुत है - वायु के सदृश निस्सङ्ग तथा विविध देशों में विचरण करने वाले और आहार के लिए किसी के घर बार-बार न जाने वाले साधु उसे धारण करते हैं । वे दिन में एक बार कर युगल रूपी पात्र में ही अल्प भोजन ग्रहण करते हैं और बहुत दिनों तक शिक्षा न मिलने की स्थिति में दुःखी नहीं होते ऐसे महापुरुषों द्वारा सेवित समस्त कर्मो की निर्जरा करने वाला “अलाभ" परीषह जय" है । उपर्युक्त आचार सम्पन्न मुनि सद्गुणों से परिपूर्ण चिन्तन मग्नता सभी रसों के प्रति असम्पृक्त रहते हैं । लेकिन उनके मुख की कान्ति देदीप्यमान रहती है।
आचार्य श्री ने परीषहों को सहने के प्रति अपनी तल्लीनता और अनुभव दर्शाया है। मुनि जीवन में आने वाले अवरोधों का सामना स्वयं ग्रन्थकार ने किया है, इसलिए परीषह जयशतकम् की मौलिकता निर्विवाद ही है।
परीषह के मनोवैज्ञानिक पक्षों का उद्घाटन करते हुए उसी क्रम रोग परीषह का विवेचन कर रहे हैं।
अनेक स्थानों पर विचरण करने से जलवायु की भिन्नता का प्रभाव मनुष्य पर पड़ता है, इसी निमित्त (कारण) वातादि रोग उत्पन्न हो जाते हैं । लेकिन ऋषिजन औषधियाँ रहते हुए भी शरीर के प्रति मोह नहीं करते और उन्हें ग्रहण नहीं करते तथा राजा का प्रतिकार नहीं करते । इस तरह धैर्य और सामर्थ्य से वे रोग परिषहको जीतते हैं । मुनि रोगों पर विजय पाने