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- 76 दयावधू को मात्र साथ ले वाहन बिन मुनिपथ चलते आगम को ही आँख बनाये निर्मद जिनके विधि हिलते
आचार्य परिषह का परिचय इस स्थल पर मिलता है - पादत्राण रहित अर्थात् नङ्गे पैरों से पाषाण, कण्टकों आदि के चुभने से रुधिरमय होते हुए भी मार्ग का सेवन करना तथा किसी भी प्रकार के वाहन का सहारा न लेना चर्या परिषह जय है । ऋषिजन इन बाधाओं की चिन्ता न करते हुए बोधयान के यात्री बनने की आनंद लेते हैं । तत्पश्चात् तन, मन को संयत किये हुए (किसी एकान्त, निरापद, स्थान में) आसन लगाते हैं - सरिता, सागर, सरोवर के तटों पर या किसी गुण या वृक्षों की कोटर आदि में उनकी आसन रहती ही (जिनमें वीरासन, पर्यकासन सिंहासन, पद्मासन उत्फुटिकासन वज्रासन आदि कष्टकारक क्रियाएं उन्हें साध्य हैं तथा विविध भयोत्पादक जानवरों की आवाजों से निडर रहते हुए अन्तान में मग्न रहते हैं । इस प्रकार आसन परीषहजय करते हुए सुख का अनुभव करते हैं -
इह युतोप्यमुना नतिभागतः, ऋषिवरैः क्षय तत्त्व समागतः । दृढ़ तम आसन लगा आप में होता अन्तर्धान वहीं ।
ऋषिवर भी आ उन चरणों में नमन करें गुण गान वहां ।।
शय्या परीषह जय की पृष्ठभूमि निर्मित करते हुए ज्ञानोदयकार ने अभिव्यंजना की है । तपस्या को सार्थक बनाने के लिए तथा ब्रह्मचर्य व्रत की सिद्धि के लिए आलस्य और निद्रा का परित्याग करना आवश्यक होता है । ऐसा करने के लिए इच्छित भोजन त्यागना पड़ता है -
ऋषिजन शास्त्र स्वाध्याय अथवा मार्ग में चलने से उत्पन्न थकावट को दूर करने के लिए मुहूर्त व्यापिनी निद्रा लेते हैं । अर्थात कङ्कड़ काँटों से व्याप्त भूखण्ड पर रात्रि समय करवटें सावधानी पूर्वक लेकर थकावट दूर करना मुहूर्त व्यापिनी निद्रा कहा जा सकता है। इस प्रकार शय्या परीषह जय में शरीर का श्रम दूर करने के लिए अवसर है, सोने के लिए नहीं। वैसे शयन परिषह जय करने वाले को निद्रा आ ही नहीं सकती।
सममयच्च मुनेश्छयनं हितं, शयनमेवमटेच्छ यनं हि तत् । यथा समय जो शयन परीषह तन रति तजकर सहता है,
निद्रा को ही निद्रा आवे मुनि मन जाग्रत रहता है । . मुनिमार्ग के पथिक हुए मनस्तियों के समक्ष आक्रोश परीषह भी उपस्थित होता है। मिथ्याचारी समझकर दुष्टजन अनादर एवं तिरस्कारपूर्ण अपशब्दों का प्रयोग ऋषियों के लिए करते हैं परन्तु उनका प्रतिकार करने में तत्काल समर्थ होने पर भी जो अपशब्दों पर विचार नहीं करते अर्थात् दूसरों के कठोर अपशब्दों को सुनकर भी क्रोधित नहीं होती वहीं आक्रोश परिषह को जीतते हैं । इस प्रकार तप के अनुष्ठान में संलग्न तथा आत्मशुद्धि को करने वाला आक्रोश परिषहजयी कहा जाता है । दूसरों के द्वारा निन्दा किये जाने से मुनियों की उज्ज्वलता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता । वे उस ओर ध्यान ही नहीं देते -
कटुक-कर्कशकर्णशुभेतरं प्रकलयन् स इहा सुलभेतरम्
वचनकं विभुधत्विव विश्रुतिः बलयुतोप्यबलश्च भुवि श्रुतिः हिन्दी अनुवाद-क्रोधजनक है कठोर, कर्कश, कण कटुक कछु वचन मिले
निहार बेला में सुनने को अपने पथ पर श्रमण चले सुनते भी पर बधिर हुए से आनाकानी कर जाते सहते हैं आक्रोश परीषह अबल, सबल होकर भाते-45