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________________ | 75 तन से , मन से और वचन से उष्ण परीषह सहते हैं निरीह तन से हो निज ध्याते वहाव ने बहते हैं परमतत्त्व का बोध नियम से पाते यति जयशील रहे उनकी यश गाथा गाने में निशदिन यह मन लीन रहे । आचार्य श्री देशमशक परिषह का प्रतिपादन करते हुए स्पष्ट करते हैं - तपश्चरण में अनेकों जीव जन्तु (बिच्छु, मच्छतर आदि) डसते हैं किन्तु दया धर्म के स्वामी ये मुनि चराचर के प्रति मैत्री भाव रखते हुए उनका प्रतिकार नहीं करते बल्कि अपना रुधिर पिलाकर उनके जीने की कामना करते हैं । दंशमशक परीषह मुनियों द्वारा मान्य है क्योंकि वे उसे सहर्ष सहन करते हैं । नाग्न्य परीषहजय आते हुए कर्मों को रोकता हैयह सत्पुरुषों द्वारा प्रशंसनीय है । ऋषिजन वस्त्रों को पाप का प्रदाता समझ कर उन्हें त्याग देते हैं और दिगम्बरत्व धारण करते हैं । मानसिक विकारों को जीत लेने से स्त्रियों को निन्द्य समझते हैं, वे संसार शरीर और भोगों से विरक्त होकर मोक्ष की अभिलाषा करते हैं - नग्नता के प्रति भाव नहीं रखते । अत इतो न घृणां कुरुते मनो, भुवि मुदार्षिरिदं जयतोऽमनो । बिना घृणा के नग्नरूप धर मुनिवर प्रमुदित रहते हैं । भव दुःख हारक, शिवसुखकारक, दुस्सह परिषह सहते हैं । नृत्य, संगीत आदि से विरहित, एकान्तवासी, सुख-दुःख के प्रति माध्यमस्थभाव धारण करना आदिनियम अरति परीषह जय में सम्मिलित है । विषयों के प्रति निरत मुनि “इन्द्रियजयीबनकर अरति परीषहजय करते है । सड़ी-गली वस्तुओं तथा श्मशान के ग्लानिपूर्ण दृश्यों को देखकर भी वे उद्विग्न नहीं होते । विषयवासना प्रधान शास्त्रों से दूर रहते हैं । वैराग्य में पूर्ण मन लगाकर मानसिक कलुषता से ग्रस्त नहीं हो सकते यही "अरति परीषह जय है" । सुविधिना यदनेन विलीयते मनसिजा विकृतिख लीयते । आगम के अनुकूल साधु हो अरति परीषह सहते हैं कलुषित मन की भाव-प्रणाली मिटती गुरुवर कहते हैं । उपर्युक्त परीषहों के क्रम में विद्यासागर जी महाराज स्त्री परिषह का उद्घोष करते हैं कि तपस्वीजन ! मोह उत्पन्न होने के कारणों के विद्यमान होने पर भी निर्लिप्त रहते है। निर्जन वन प्रदेश में स्त्रियों के हाव-भाव और सौन्दर्य से चित्त भ्रमित न हो तथा काम परास्त हो जावे इसे ही "स्त्रीपरिषह जय" कहा गया है । आचार्य श्री अभिव्यक्त करते हैं कि वनप्रदेश में निर्मुक्त भ्रमण करती हुई सौन्दर्य सम्पन्न प्रमदाएँ मुनियों के मन में काम भाव नहीं जगा सकती। वे महाभाग तो शीलवती, समतारूपी रमणी को ही वरण करते हैं। ऐसे यतियों की उम्र तपस्या का प्रभावशाली शङ्खनाद प्रस्तुत पद्य में है - . कठिन साध्य तपो गुणवृद्धये मति मलाहतये गुणवृद्धये पदविहारिण आगमनेत्रका व्रतदयाविमदा व नेत्र का:42 इस पद्य का हिन्दी अनुवाद भी द्रष्टव्य है - कठिन कार्य है खरतर तपना करने उन्नत तप गुण को, पर्ण मिटाने भव के कारण चञ्चल मन के अवगण को ।
SR No.006275
Book Title20 Vi Shatabdi Ke Jain Manishiyo Ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendrasinh Rajput
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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