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'अनघातं लघुनैति सुसंगतां संभगतां भगतां गतसंगताम् जित परीषहकः सह को विदा, विद्वदिहाप्यध का सह कोविदाः'। हिन्दी पद्य भी अत्यन्त रमणीय है -
स्वर्णिम, सुरभित, सुभग, सौम्यतन सुरपुर में वर सुरसुख है उन्हें शीघ्र से मिलता शुचितम शास्वत-भास्वत शिव सुख है । वीतराग विज्ञान सहित जो क्षुधा परीषह सहते हैं ।
दूर पाप से हुए आप हैं बुधजन जग को कहते हैं 36
तृषा परीषह का विश्लेषण करते हुए कहा गया हैं कि सूर्य से सन्तृप्त शरीर हो रहा है, गर्भस्थानों में भ्रमण करते है तथा उपवास और प्यास से कण्ठ सूख जाता है तथापि प्यास की बाधा पर विचार नहीं करते शरीर की ममता को पाप-ताप का कारण समझकर उसे त्याग देते हैं और समता में विश्वास करते हैं वे ही विमलात्मा तृषा परीषह धारण करते हैं, उन्हें प्यास नहीं सताती वह तो स्वप्न में लीन हो जाते हैं । यम-नियमादि धारण करने वाले ये मुनि अपने जीवन को स्वावलम्बी बना कर विषयों के प्रति आसक्ति नहीं रखतेउनके अनुसार नारकी ही तृषित होकर व्यथित बने पड़े रहते हैं । बोधमय सुधापान करने वालों को तृषा व्याप्त नहीं होती
विमलं बोध सुधां पिबतां तृषा,
व्यथति तं न तृषा सुगताज सा.” मुनि जीवन स्वीकार करने वालों को शीत परीषह का भी सामना करना पड़ता है।
शीत कालीन पवन तथा हिमपात के समय दिगम्बर मुद्राधारी कम्पायमान शरीर से युक्त होते हुए भी साधना करते हैं । नदी के तट पर रहने वाले दिगम्बर साधु शीत परिषहजय प्रशंसनीय होता है । वह विषम परिस्थितियों का मुकाबला करते हुए शिवपथ पर अग्रसर रहता है । हिमपात की बाधा अपने तपस्या के महातेजस्वी अनल को प्रज्वलित करके सहता है -
विमल चेतसि पूज्ययतेः सति महति सत् तपसि ज्वलिते सति ।
किमु तदा हि बहि हिमपाततः सुखित-जीवनमस्यमपाः ततः ॥ हिन्दी पद्य भी दर्शनीय है - . यम-दम-शम से मुनि का मान अचल हुआ है विमल रहा महातेज हो धधक रहा है जिसमें तप का अनल महा बाधा क्या फिर बाह्य गात पे होता हो हिमपात भरे
जीवन जिनका सुखित हुआ हम उन पद में प्रतिपाद करें वर्षाकाल में घनघोर बादलों की गर्जना, बिजली का तड़कना आदि भयोत्पादक परिस्थितियाँ इन मुनियों के सम्मुख आती हैं और उसी समय उनके धैर्य एवं गम्भीर त्याग की परीक्षा हो जाती है। उष्ण परीषह की व्यापक बाधाओं का उल्लेख करते हुए आचार्य श्री प्रतिपादित करते हैं, जब सम्पूर्ण प्राकृतिक वातावरण
और जन जीवन सूर्य की प्रचण्डता और गर्म हवाओं से अस्तित्वहीन सा हो जाता है, उस विकट समय में भी मुनिजन शान्ति सुधा का पान करते हुए स्थिरता धारण करते हैं - अग्नि तुल्य शिलातल पर एकासन लगाये हुए तन-मन-वचन से उष्ण परीषह जय करते हैं ।
परीषहं कलयन् सह भावतः स हतदेहरुचिनिर्ज भावतः परमतत्त्वविदा कलितो यतिः जयतु मे तु मनः फलतोयतिः॥"