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________________ 73 जिस प्रकार पारसमणि में लौह को स्वर्ण बनाने की क्षमता है, उसी प्रकार प्रस्तुत शतक में भक्त को भगवान बनाने की सामर्थ्य है । इस शतक के आस्वादन से सहृदयों का हृदय भी निरञ्जनमय हो जाता है । परिषहजय शतकम्३२ पद्य साहित्य में गहन आस्था रखने वाले आचार्य प्रवर विद्यासागर जी महाराज गेय छन्दों में ही पद्य रचनाएँ करते हैं । आचार्य श्री कृत "परीषहजयशतकम् का सुधीजनों में अत्यन्त समादर हुआ है । इस कृति को आचार्य श्री ने अपने गुरु ज्ञानसागर के नाम को ध्यान में रखकर "ज्ञानोदय' नाम दिया है । "परीषहजय शतकम्" सौ पद्यों में निबद्ध शतक काव्य है । इसमें दिगम्बर जैन परम्परा में मान्य, मुनियों के क्षुधादि 22 परीषहों तथा उन पर विजय प्राप्त करने के आध्यात्मिक उपायों का काव्यात्मक विवेचन है । परीषह की व्युत्पत्ति एवं परिभाषा : क्षुधादि वेदनोत्पतौ कर्म निर्जरार्थं सहनं परीषहः । परिषहस्य जयः - परिषहजयाः ॥3 अर्थात - क्षुधादि जो वेदनाएं हैं उन्हें संयत होकर सहन करना “परीषहजय" है। सवार्थसिद्धि में वर्णित 22 परीषहों के नाम अधोलिखित हैं क्षुत्पिपासाशीतोष्ण दंशकमशकनाग्न्यारतिस्त्रीचर्या निषद्याशय्याक्रोशवधयाचनालाभरोगतृणस्पर्शमल सत्कारपुरस्कार प्रज्ञाज्ञानादर्शनानि ॥ अर्थात - क्षुधा, पिपासा, शीत, उष्ण, दंशमशक, नाग्न्य, अरति, स्त्री, चर्या निषद्या, शच्या, आक्रोश, वध, याना, अलाभ, रोग, तृणस्पर्श, मल, सत्कार पुरुषस्कार, प्रज्ञान, अज्ञान और अदर्शन । उक्त परीषह जीव द्रव्य और पुद्गल द्रव्य के परिणाम हैं तथा जीव की शारीरिक और मानसिक पीड़ा के कारण भी जैसे भूख और प्यास जीव के परिणाम हैं । इसी प्रकार उक्त 22 परीषह भी पीड़ा के कारण हैं, आत्मकल्याण के अभिलाषी पूज्य दिगम्बर मुनि इन सब परीषहों और उपसर्गों को समतापूर्वक सहन करते हैं। वे कर्मों की निर्जरा करते हुए शिवपथ पर अग्रसर होते हैं - अतः इन पूज्य दिगम्बर मुद्राधारी मुनियों में आस्था करना प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य होता है - परीषहजय शतकम् की विषय वस्तु संवर मार्ग पर दृढ़ रखने वाले तथा कर्मों की निर्जरा करने वाले परीषंहों में प्रथम क्षुधा परीषह है । आर्चाय श्री ने ग्रन्थारम्भ में अपने इष्ट देवों के प्रति श्रद्धा समर्पित करते हुए इस काव्य ग्रन्थ की सफलता की कामना की है वे ज्ञान मेष द्वारा अमृत वर्षा करने की प्रार्थना करते हैं। क्षुधा परीषह तप का कारण भूत है । पहले भोगे हुए भोजन का स्मरण न करते हुए वैराग्यरस का आस्वादन करने वाले सुधीजन धैर्यपूर्वक इसे सहन करते है । उनकी आपत्तियाँ नष्ट होती हैं तथा सद्गति मिलती है । फलतः इस परीषह के साधकों की कीर्ति विस्तृत हो जाती है -
SR No.006275
Book Title20 Vi Shatabdi Ke Jain Manishiyo Ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendrasinh Rajput
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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