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________________ 72 तत्त्व ही निरञ्जन का प्रतिनिधित्व करता है । वास्तव में जो कर्मरूपी अञ्जन से पूर्णत: अलिप्त हैं, वे ही निरञ्जन कहलाने के अधिकारी हैं । प्रस्तुत ग्रन्थ में अतीत, अनागत और वर्तमान की सभी निरञ्जन आत्माओं की स्तुति की गई है और वैराग्य की महिमा, भक्ति के द्वारा मोहरूपी अन्धकार का विनाश आदि महत्त्वपूर्ण तथ्यों को उजागर किया गया है । भक्ति भावना से व्यक्ति तेजस्वी होता है उसके मुखमण्डल पर शांति और प्रेम की सौम्यता विराजती है उसके ज्ञान की अलौकिक बिना सूर्य की द्युति को भी मलिन करती है - ऐसे पुरुष पर आचार्य का प्रेम है - स्पृशति ते वदनं च मनोहरं तव समं मम भाति मनोहरम् । समुपयोग पयो ह्यपयोग तन्ननु भवेन्नपयोऽपि पयोगतम् । आचार्य जी भोमादि से असंपृक्त निरञ्जन में रागद्वेषादि से रहित अपनी आस्था अभिव्यक्त करते हैं । परमात्म तत्त्व की अनेकों प्रकार से स्तुति इस ग्रन्थ में की गयी है । आचार्य जी ने सर्व शक्तिमान, असीम गरिमामय विज्ञानरूप आदि संज्ञाएँ परमात्म के लिए दी हैं - सर्वज्ञ हो इसलिए विभु हो कहाते निस्सङ्ग हो इसलिए सुख चैन पाते । मैं सर्वसङ्ग तज के तुम सङ्ग से हूँ आश्चर्य ! आत्म सुखलीन अनङ्ग से हूँ ॥ आचार्य श्री भावोद्गार व्यक्त करते हैं - कि हजारों सूर्य से प्रखर आप मेरे अन्तः करण में विराजमान हों आप मोक्षदाता हैं और निज में नित्यलीन हैं । इसीलिए जैसे नदी समुद्र में समाकर सुख का अनुभव करती है उसी प्रकार मेरा मन आप में समाकर हर्षित होता है - "चरणयुगमतिदं तव मानसः सनखमौलिक एवं विमानस । भृशमहं विचरामि हि हंसक यदिह तत् तटके मुनि हंसकम् ।। इसी भाव से प्रेरित होकर आगे कहते हैं जड़, चेतन, वाणी, त्रिलोक आदि सबमें तुम्हारी सत्ता है मुझे आप अपनी उपासना में लीन होने का अवसर दो अत: मैंने अब प्रथम अम्बर (वस्त्र) त्याग कर दिगम्बरत्व को धारण कर मन को विभु बना लिया है । मन का मैल धो रहा हूँ जब मेरी मति स्तुति रूपी सरोवर में रहेगी तो मदाग्नि का उस पर कुछ भी असर नहीं हो सकता । निरञ्जन शतकम् में आचार्य प्रवर की परमात्म के प्रति गहन गम्भीर आस्था परिलक्षित भी होती है, इसी भाव से परिपूर्ण यह ग्रन्थ रोचक और लोकप्रिय बन पड़ा है । रचनाकार का मन्तव्य है कि आकाश में अपने पङ्ख फैलाकर उड़ने वाले अकेले पक्षी के समान मैं पहले आपकी स्तुति का सहारा लूँगा तत्पश्चात अपने अन्त:करण में विचरण करूँगा । आपके आश्रित रहकर ही मैं मोहादि मलों को नष्ट कर सका हूँ अब काम मेरा दुश्मन हो चुका है । कारण के सद्भावात्मक अभाव में ही कार्य की निष्पत्ति होती है। अतः मैं भी कामयुक्त कभी नहीं हो सकता । संसार के जो लोग तुम्हें वैभव, भोग आदि से पूजना चाहते हैं वे उस मूर्ख कृषक के समान हैं, जो सोने के हल से अपनी कृषि करवाता है । इस प्रकार उपरोक्त भावों से परिपूर्ण निरञ्जनशतक आ. विद्यासागर जी की श्रेष्ठ रचना है ग्रन्थ के अन्त में अनेक रूपों में निरञ्जन (ईश्वर) की स्तुति करते हुए अपने मन में हमेशा उन्हें स्थापित करने की कामना की है उसे जग सन्मार्ग दृष्टा, मृत्युञ्जयी, अक्षर आदि सम्बोधनों से विभूषित किया है । "निरञ्जनशतकम्" की सुधाधारा में स्नपित हो भक्त हृदय अमृतमय हो जाता है । इस ग्रन्थ के गाम्भीर्य में अवगाहन करने वालों को ही काव्यानन्द की प्राप्ति होती है।
SR No.006275
Book Title20 Vi Shatabdi Ke Jain Manishiyo Ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendrasinh Rajput
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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