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________________ 78 में आत्मसुख का अनुभव करते हैं - वे उसे कर्मों का फल मानकर एवं शरीर को नश्वर समझकर दयालुता पूर्वक सहते हैं - इसी भाव को प्रस्तुत पद्य में अभिव्यक्त किया है - विधिदलाः कटु दुःख-करामया बहव आहु रपीह निरामयाः । अशुचि-धामनि चैव निसर्गतः क्षरणमेव विधेरुपसर्गतः ॥48 हिन्दी पद्य - सभी तरह के रोगों से जो मुक्त हुए हैं बता रहे, कर्मों के ये फल हैं सारे, सारे जग को सता रहे । रोगों का ही मन्दिर तन है, अन्तर कितने पता नहीं, हृदय रोग का कर्म मिटाता ज्ञानी को कुछ व्यथा नहीं ॥ आचार्य प्रवर ने मुनियों की श्राङ्गारिक वस्तुओं के प्रति उदासीनता निरुपित की है। वह गम्भीर परिस्थितियों में औषधि भी ले सकता है । इस प्रकार विविध परीषहों का समीचीन अनुशीलन करने के पश्चात् हमें विदित होता है कि मुनियों का समग्र जीवन कठिन परिस्थितियों (कष्टों-विषमताओं) और सङ्घर्षों से परिपूर्ण है, क्योंकि सांसारिकता के प्रति उदासीन वृत्ति, रोगों से अनासक्ति रखना तथा शरीरिक वेदना निरन्तर सहना सहज नहीं है, किन्तु साधनापथ के पथिक बनने के उपरान्त एक अलौकिक आनन्द का अनुभव होने लगता है, जिससे सांसारिक बाधाएँ व्याप्त नहीं हो पाती ।। ज्ञानोदयकार परीषहजयों के क्रम में तृणादि स्पर्श परिषह जय का सैद्धान्तिक अस्तित्व प्रकट करते हैं । तदनुसार छोटे-छोटे कङ्कण, मिट्टी, काष्ठ तृण, कण्टक और शूल आदि के द्वारा चरण युगल के घायल हो जाने पर उस और जिनका चित्त आसक्ति नहीं रखता तथा जो चर्या, शय्या और निषद्या में अपनी पीड़ा का परिहार करते हैं । मुनि के इस आचार विचार को तृणादि स्पर्श परिषहजन्य माना गया है - इन्हीं भावों से ओत-प्रोत यह पद्य दृष्टव्य है - यदि तृणं पदयोश्च निरन्तरं, तुदति लाति गतौ मुनिरन्तरम् । .. तदुदितं व्यसनं सहतेजसाहमपि सच्चासहे मतितेजसा ॥ तृण कण्टक पद में वह पीड़ा सतत दे रहे दुखकर हैं,. गति में अन्तर तभी आ रहा रुक-रुक चलते मुनिवर हैं। . उस दुसस्सह वेदन को सहते-सहते रहते शान्त सदा उसी भाँति में सहूँ परीषह शक्ति मिले, शिव शान्ति सुधा ।' आचार्य श्री ने मल परीषह का चित्रण अत्यन्त सरसता और भावुकता के साथ अपनी कर्तृत्वपूर्ण शैली में किया है - मल परीषह का सामान्य परिचय इस प्रकार है- सूर्य के संताप से उत्पन्न वेद बिन्दुओं से और धूलि के जम जाने से ऋषियों के शरीर में खाज आदि होते हैं किन्तु शरीर के प्रति निर्मोह रखने के कारण स्नानादि नहीं करते वे तो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र आदि गुण रूपी शीतल जल में अवगाहन करके कर्मरूपी कीचड़ को दूर करने के लिए दत्तचित्त रहते हैं, ऐसे मुनि ही मल परीषह जय करते हैं । उपर्युक्त भाव से परिपूर्ण उदाहरण प्रस्तुत है - कलपनाङ्गज़रञ्जि - देहकः सहरजो मलको गतदेहकः । मल परीषहजित स्वसुधारकः विरस-पादय-भाव सुधारकः ॥
SR No.006275
Book Title20 Vi Shatabdi Ke Jain Manishiyo Ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendrasinh Rajput
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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