SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 86
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 65 स्वर में प्रलाप करने लगा । रानी रामदत्ता ने राजा से इस रहस्य का पता लगाने का आग्रह किया । रानी ने राजा को दरबार में भेज दिया । इसके बाद रानी ने सत्यघोष को शतरञ्ज खेलने बुलाया और रानी ने मधुर संभाषण करते हुए उसकी छुरी, यज्ञोपवीत और मुद्रिका इन तीनों को जीत लिया । रानी चतुरतापूर्वक दासी को तीनों वस्तुएँ सौपते हुए मन्त्री के घर से उनकी पत्नी से भद्रमित्र के रत्नों की पोटली लाने को कहा । दासी ने वहाँ जाकर "मन्त्री जी ने मुझे रत्नों की पोटली मांगने भेजा है और निशान स्वरूप यज्ञोपवीत, छुरी, अंगूठी दिखाई। इस प्रकार मंत्री पत्नी से रत्नों की पोटली रानी ने प्राप्त कर ली । चतुर्थ सर्ग - रानी ने वे रत्न राजा को सौंपे। राजा ने बहुत रत्नों में मिलाकर भद्रमित्र से अपने रत्न लेने को कहा, भद्रमित्र ने अपने सात रत्न ले लिये, जिससे प्रभावित होकर राजा ने उसे राजश्रेष्ठी बना दिया और सत्यघोष को कठोर दण्ड देकर पदच्युत कर दिया ? परिणामस्वरूप सत्यघोष ने आत्मघात कर लिया और मरणोपरान्त सर्प हुआ। भद्रमित्र राज श्रेष्ठी रहकर वसस्थ मुनिवर के प्रवचनों से प्रभावित होकर सन्तोषव्रत के साथ धन सम्पत्ति का अतिशय दान करता है । उसकी दानशीलता का उसकी माँ ने तीव्र विरोध किया और दान देने से न रूकने पर उसकी माँ ने प्राण त्याग दिये वह मरणोपरान्त व्याघ्री हुई । एक दिन इस व्याघ्री ने भद्रमित्र का भक्षण कर लिया । तदुपरान्त भद्रमित्र राजा सिंहसेन के पुत्र " सिंहचन्द्र " के रूप में जन्मा "पूर्णचन्द्र" इनका अनुज था । एक दिन राजा सिंहसेन खजाने में रत्नों को व्यवस्थित रूप से रखकर निकले की तुरन्त ही (सत्यघोष) सर्प ने उन्हें डस लिया । राजा की मृत्यु हो गई और वह मरकर अशनिघोष नामक हाथी हुआ वह सर्प भी मरकर नगर के समीप वन में चमरमृग हुआ । शोकाकुल रानी रामदत्ता ने दो आर्यिकाओं के कहने से आर्यिका धर्म ग्रहण कर लिया। तदुपरान्त सिंहचन्द्र राजा और पूर्णचन्द्र युवराज हुए। एक दिन " पूर्णविध" नामक मुनिराज के पास पहुँचकर सिंहचन्द्र मुनि बन गया । एक दिन सिंहचन्द्र मुनि की वन्दना करती हुई आर्यिका रामदत्ता ने निवेदन कियाकि हे मुनिराज आपका अनुज एवं मेरा पुत्र पूर्णचन्द्र भोगविलास में लिप्त है, वह धर्माचिरण करेगा या नहीं । मुनिराज कहने लगे जब वह अपने पूर्वजन्म का वृत्तान्त सुनेगा तब वह धर्मपालन के लिए तत्पर होगा - ऐसा कहकर उन्होंने आर्यिका रामदत्ता को उसके पूर्वजन्म का वृत्तान्त सुनाया और कहने लगे कि यह वृत्तान्त पूर्णचन्द्र को सुना देना - सिंहचन्द्र कहने लगा भरतक्षेत्र के कौशलदेश के मध्य वृद्ध नामक गाँव है, उसमें गृगायण ब्रह्माण और मधुरा पत्नी सहित दोनों रहते थे - इनकी "वारुणी " नामक पुत्री थी । मृगायण ब्राह्मण मरणोपरान्त अयोध्या की रानी सुमिता की लावण्यवती नामक पुत्री के रूप में उत्पन्न हुआ । यह पोदनपुर के अधिपति पूर्णचन्द्र की पत्नी बनी । मृगायण की पत्नी मधुरा भी पूर्णचन्द्र की पुत्री के रूप में जन्मी । मैं पूर्वजन्म का भद्रमित्र हूँ और वारुणी लड़की ही आपके यहाँ पूर्णचन्द्र के रूप में प्रकट हुई । आपके पिता पूर्णचन्द्र भद्रबाहु नामक श्रीगुरु के पास मुनि बने और मैं भी उन्हीं पूर्णचन्द्र के समीप मुनि हुआ हूँ । आर्यिका दान्तमती के पास आपकी माता भी आर्यिका बनी हैं।
SR No.006275
Book Title20 Vi Shatabdi Ke Jain Manishiyo Ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendrasinh Rajput
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy