SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 85
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 64 नामक एक पुत्र हुआ । एक समय उसके मित्रों ने उसे अपने जीवनयापन के लिए धनार्जन करने को प्रेरित किया और व्यवसाय के लिए स्त्नद्वीप जाने का निश्चय किया । इस सम्बन्ध में मित्रमंडली में से एक मित्र ने पुरानी कथा भी सुनाई जो अधोलिखित है । द्वितीय सर्ग - भारत वर्ष में विजयार्द्ध नामक श्रेष्ठ पर्वत है । इस उच्चशिखरों वाले पर्वत के उत्तर में अलका नामक नगरी है। किसी समय वहाँ महाकच्छ नामक प्रतापी राजा हुआ उसकी "दामिनी" नामक रानी थी और इनकी पुत्री “प्रियङ्गश्री" थी, जो अत्यन्त सुन्दर और समयानुसार विवाह के योग्य हुई । एक ज्योतिषी ने उसके पिता को बताया कि आपकी इस सुशीला कन्या का विवाह स्वकगुच्छ के अधिपति ऐरावण के साथ होगा । इस भविष्यवाणी के अनुकूल महाकच्छ ने भी महाराज ऐरावण की परीक्षा ली और उन्हें योग्य समझकर अपनी पुत्री को स्वीकार करने का आग्रह किया । महाराज ऐरावण ने स्वीकृति दी और प्रियङ्गश्री को लाने को कहा । __आलकापुरी से स्तवकगुच्छ ले जाते हुए मार्ग में प्रियङ्गश्री से विवाह करने के अच्छुक वज्रसेन से महाकच्छ का सङ्घर्ष हुआ । वहाँ समय पर आकर ऐरावण ने वज्रसेन को पराजित किया और प्रियङ्गश्री से सानन्द विवाह किया । वज्रसेन ने विरक्त होकर जिनदीक्षा ले ली और ऊपरी मन से तपस्या करने लगा। तपश्चरण काल में ही वह एक बार स्तबकगुच्छ पहुँचा वहाँ क्रोधित लोगों ने उसे लाठियों से पीटा जिससे वज्रसेन ने भी बांये कन्धे से तैजस पुतले से सम्पूर्ण नगर को जला दिया और स्वयं भी जलकर भस्म हो गया और नरक गया । इसलिए वज्रसेन के समान दूसरे की अमानत पर अधिकार नहीं जमाना चाहिये अपितु स्वयं अपने परिश्रम से व्यवसाय करना चाहिये। तृतीय सर्ग - इस कथा से प्रभावित होकर भद्रमित्र ने अपने पिता से परदेश जाने की अनुमति मांगी । पिता ने कहा तुम्हें विदेश जाने की आवश्यकता नहीं क्योंकि मेरी आय बहुत और तुम मेरे एकमात्र पुत्र हो अत: तुम्हारा घर से बाहर रहना हमारे लिए कष्टप्रद होगा । किन्तु भद्रमित्र के बहुत आग्रह करने पर उसके पिता ने स्वीकृति दे दी और माता को भी उसके दृढ़ निश्चय के समक्ष विवश होकर उसे विदेश जाने की अनुमति देनी पड़ी। इस प्रकार अपने माता-पिता से अनुमति लेकर भद्रमित्र अपने साथियों सहित रत्नद्वीप पहुँचा, वहाँ उसने सात रत्न प्राप्त किये । एक दिन भद्रमित्र राजासिंहसेन के नगर सिंहपुर पहुंचा। सिंहसेन की रानी का नाम रामदत्ता था । "श्रीभूति" नामक मंत्री अपनी झूठी सत्यवादिता का प्रचार किये था, उसने जनता को भ्रमित करते हुए एक छुरी गले में पहन रखी थी कि यदि मुझसे कभी झूठ बोल गया तो मैं आत्महत्या कर लूँगा । इसी कारण राजा ने उसे "सत्यघोष" नाम दिया । सिंहपुर में जाकर भद्रमित्र ने सत्यघोष को पुरस्कार स्वरूप धन सम्पत्ति देकर अपने माता-पिता को भी इसी नगर में बसने की अनुमति मांगी । सत्यघोष की अनुमति मिलने पर वह अपने सातों रत्न उसी के पास रखकर माता-पिता को लेने चला गया। तत्पश्चात् भद्रमित्र ने लौटकर सत्यघोष से अपने रत्न मांगे, किन्तु उसने अपने झूठे तर्कों से भद्रमित्र पागल, पिशाच आदि घोषित करके पहरेदारों से बाहर निकलवा दिया । वहाँ भद्रमित्र का किसी ने विश्वास नहीं किया । वह निराश होकर प्रतिदिन एक वृक्ष पर चढ़कर करुणापूर्ण
SR No.006275
Book Title20 Vi Shatabdi Ke Jain Manishiyo Ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendrasinh Rajput
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy