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________________ 63 होकर गिर पड़ा और कुछ ही क्षणों में उसकी मृत्यु हो गई । गुण श्री दीर्घ शङ्का से निवृत्त होकर मृतपाय पति के समक्ष विलाप करने लगी और पश्चाताप करती हुई सम्पूर्ण वृत्तान्त सुनाने लगी जिससे उपस्थिति जनसमूह को वास्तविकता का ज्ञान हो गया । गुणश्री ने भी अवशिष्ट विषयुक्त दो लड्डु खाकर अपनी जीवनलीला समाप्त कर ली और पति अनुसरण किया । सप्तम लम्ब - गुणपाल सेठ के सम्बन्ध में राजा वृषभदत्त को मन्त्री के द्वारा सम्पूर्ण समाचार प्राप्त हो गये और उन्होंने सोमदत्त को दर्शनार्थ अपने पास आमंत्रित किया । सोमदत्त से कुशल क्षेम का समाचार पूँछा। उसने अपने सास-सुसर की असामायिक मृत्यु पर संवेदना व्यक्त की । राजा भी सोमदत्त के प्रति सहानुभूति रखने हुए उसके असाधारण रूप-सौन्दर्य एवं शिष्टाचार से प्रभावित हुए और उन्होंने अपनी कन्या के विवाह का प्रस्ताव किया - सोमदत्त भी उनके प्रस्ताव से सहमत हो गया और उनका अनुमोदन करते हुए उसने उनकी कन्या को स्वीकार कर लिया । इसी प्रकार सोमदत्त और राजकुमारी का विवाह सम्पन्न हुआ । इसी समय विषा भी वहाँ आ गयी और उसने राजा को प्रणाम करते हुए उनके निर्णय का स्वागत किया । राजा ने सोमदत्त को आधा राज्य दे दिया। सोमदत्त, विषा एवं राजुकमारी के साथ सुखपूर्वक रहने लगा । एक दिन सोमदत्त के घर एक मुनि आये । सोमदत्त, राजुकमारी एवं विषा ने उनकी संस्तुति करके आहारादि के द्वारा सत्कार किया । मुनिवर ने रत्नत्रय को अपनाने का उपदेश दिया और मानव जन्म की सार्थकता, त्याग की महत्ता, ऐश्वर्य की नश्वरता आदि का सजीव एवं रोचक निरूपण किया । जिससे इन उपदेशों को श्रवण करके सोमदत्त एवं उसकी दोनों पत्नियों को वैराग्य हो गया । सोमदत्त ने मुनिदीक्षा तथा राजकुमारी एवं विषा ने “आर्यिका" की दीक्षाएँ ग्रहण की । बसन्तसेना वेश्या ने भी दीक्षा ग्रहण कर ली और अपने-अपने तप के अनुसार वे सभी स्वर्ग को गये। श्री समुद्रदत्त चरित्र२२ आकार - यह एक खण्डकाव्य है । इसमें 9 सर्ग हैं । जिनके समस्त श्लोकों की संख्या 345 है । नामकरण - इसमें भद्रमित्र (समुद्रदत्त) नामक व्यापारी के जीवन चरित्र और उसकी सत्यप्रियता का विवेचन होने से ही “श्री समुद्रदत्त चरित्र" यह ग्रन्थ का नाम रखा गया है । इसे “भद्रोदय" भी कहते हैं, क्योंकि भद्रमित्र (समुद्रदत्त) ही कथानक का केन्द्र है। यह नाम नायक के नाम पर होने से सर्वथा उपयुक्त और सार्थक है । प्रयोजन - कवि ने अपनी क्षुल्लकावस्था में ही यह खण्डकाव्य भ्रष्टाचार के बढ़ते प्रभाव से चिन्तित होकर निबद्ध किया। अर्थात् सत्य की प्रतिष्ठा को अक्षुण्ण रूप से स्थापित करने के लिए ही भद्रमित्र का आश्रय लेकर लिखा है । इसमें सत्य की विजय का प्रतिपादन है । विषयवस्तु - इसमें भद्रमित्र के व्यापारिक जीवन और सत्य की परीक्षा लिये जाने का व्यापक वर्णन है । इसकी संक्षिप्त कथावस्तु सर्गानुसार प्रस्तुत है ।। प्रथम सर्ग - श्री पद्यखण्ड भरतक्षेत्र का एक नगर है वहाँ "सुदत्त' नामक वैश्य अपनी "सुमित्रा" नामकी पत्नी सहित निवास करता था । उन दोनों का शुद्ध सरल “भद्रमित्र"
SR No.006275
Book Title20 Vi Shatabdi Ke Jain Manishiyo Ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendrasinh Rajput
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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