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________________ 60 इस प्रकार सुदर्शन के उपदेशों से प्रभावित उसने उन्हीं से आर्यिका की दीक्षा ग्रहण कर ली । देवदत्ता को उपदिष्ट करके सुदर्शन श्मशान में जाकर आत्मचिन्तन में लीन हो गये । एक दिन आकाश मार्ग से विमान पर आरूढ़ व्यन्तरी देवी (अर्थात् रानी अभयमती) ने उन्हें देखा और पूर्व जन्म के वैर के कारण क्रोधित होकर विघ्न उपस्थित करने लगी किन्तु बाधाओं की चिन्ता न करते हुए सुदर्शन अपने आत्म चिन्तवन में दत्तचित्त थे इसलिये राग-द्वेष भी समाप्त हो गये और उन्हें मोक्ष प्राप्त हुआ - न दीपो गुणरत्नानां जगतामेक दीपकः । स्तुतांजनतयाऽधीतः स निरञ्जनतामवाप ॥ दयोदय चम्पू यह एक चम्पू काव्य रचना है । आकार - यह सात लम्बों (अध्यायों) में विभक्त है जिनमें 166 पद्य हैं । इसमें पद्य के साथ गद्य भी प्रयुक्त हैं। नामकरण - इस ग्रन्थ में एक हिंसक धीवर के हृदय में दया का उदय और विकास वर्णित हुआ है । अतः इस कृति का नाम “दयोदय" रखा गया है जो सर्वथा उपयुक्त है। रचना का उद्देश्य - इस कृति की रचना का मुख्य लक्ष्य है - अहिंसा के माहात्म्य का प्रतिपादन करना है, जिससे दयाभाव विकसित हो तथा सुख शान्ति भी स्थापित हो। विषय वस्तु - "दयोदय" ग्रन्थ के प्रारम्भ में आचार्य श्री ने प्रस्तावना के द्वारा अहिंसा के स्वरूप एवं महत्त्व की अभिव्यञ्जना की है । तत्पश्चात सात लम्बों में अधोलिखित कथानक निबद्ध किया है - प्रथमलम्ब - जम्बूद्वीप में स्थित भारतवर्ष अपनी महिमा, श्रीसम्पन्नता, रहन-सहन एवं आचार-विचार के लिए विख्यात है । वहाँ उज्जयिनी नामक नगरी में एक समय वृषभदत्त राजा हुआ । वृषभदत्ता उसकी रानी थी । राजा वृषभदत्त ने समय में ही गुणपाल सेठ और गुण श्री सेठानी उज्जयिनी में रहते थे। सेठ सेठानी की विषा नामक पुत्री थी । एक दिन गुणपाल सेठ के द्वार पर जूंठे बर्तनों में पड़ी हुई लूंठन को खाकर एक बालक अपनी क्षुधा शान्त करने लगा। उसी समय एक मुनि ने अपने शिष्य के साथ जाते हुए उसे देखा और यह कहा कि यह बालक गुणपाल का जमाता होगा" मुनि ने यह भी कहा कि यह इसी नगरी के सार्थवाह श्रीदत्त का पुत्र है किन्तु पूर्वजन्म के पापों के कारण मातृपितृ से विहिन हो गया है । शिष्य ने उस बालक के पूर्ववृत्तान्त सुनाने की प्रार्थना की तब मुनि ने स्पष्ट किया - अवन्ती प्रदेश में शिप्रानदी के तट पर "शिंशपा - नामक ग्राम में मृगसेन धीवर रहता था, उसकी पत्नी का नाम "घण्टा" था । धीवर मछलियाँ पकड़कर अपनी जीविका चलाता था । उसने एक दिन पार्श्वनाथ के मन्दिर में विशाल जनसभा के साथ दिगम्बर साधु के प्रवचनों को सुना - जीवितेच्छा यथाऽस्माकं कीटादीनां च सा तथा । जिजीविषुरतो मर्त्यः परानपि न मारयेत् ॥ मुनि श्री के अहिंसात्मक व्याख्यान से प्रभावित होकर उनके समक्ष अपनी हिंसक जीवन-वृत्ति और अपनी मजबूरी दर्शाता है । उसे समझाते हुए मुनि कहते हैं, यद्यपि तू इस
SR No.006275
Book Title20 Vi Shatabdi Ke Jain Manishiyo Ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendrasinh Rajput
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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