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________________ 59 होने पर "त्रिया चरित्र'' का प्रयोग करती है और सुदर्शन को द्वारपालों से पकड़वा कर उसे अपराधी कहकर राजा द्वारा मृत्यु दण्ड करवा देती है। अष्टम सर्ग - जब यह घटना नगरवासियों ने सुनी तो लोक-रीति के अनुसार अपनेअपने विचार व्यक्त करने लगे । जब राजा के आदेशानुसार चाण्डाल ने सुदर्शन के गले पर तलवार से प्रहार किया तब प्रहार. गले का हार बन गया, सभी को आश्चर्य हुआ किन्तु राजा ने स्वयं सुदर्शन पर प्रहार करने का निश्चय किया । जैसे ही राजा ने तलवार उठाई, तभी यह आकाशवाणी हुई - "जितेन्द्रिय महानेष स्वदारेष्वस्ति तोषवान् ।.. राजन्निरीक्ष्यतामित्थं गृहच्छिद्रं परीक्ष्यताम् ॥ हे राजन् । यह अपनी पत्नी से ही सन्तुष्ट, जितेन्द्रिय एवं निर्दोष है, दोष तुम्हारा ही है अपने घर का निरीक्षण करो । राजा का अज्ञान, अभिमान नष्ट हो गया और उसके मन में श्रद्धा उत्पन्न हुई जिससे वह क्षमा याचना पूर्वक सुदर्शन की स्तुति करने लगा- सुदर्शन ने कहा - हे राजन्, इसमें आपका दोष नहीं है, यह मेरे पूर्व जन्म के कर्मों का प्रतिफल है, मैं किसी को शत्रु या मित्र नहीं समझता" । प्रत्येक मनुष्य को भी मद, मात्सर्य आदि दुर्भावों का परित्याग कर मोक्ष प्राप्ति करना चाहिये । प्रत्येक प्राणी को कर्मों के अनुसार ही सुख या दुःख की प्राप्ति होती है इसलिये विद्वान सुख-दुःख, हर्ष-शोक, सम्पत्ति-विपत्ति में समानता धारण करते हैं । इसके उपरान्त सुदर्शन ने वैराग्य धारण करने का निश्चय किया और घर आकर अपनी पत्नी मनोरमा को इस निश्चय से अवगत कराया - इस अवसर पर वे माया को मोक्ष विरोधिनी, विकार बढ़ाने वाली एवं व्याकुलता की जननी सिद्ध करते हैं। मनोरमा भी सदर्शन के विचारों से सहमत होकर आर्यिका बनने का संकल्प किया और वे दोनों जिनालय में जाकर जिनेन्द्र देव का स्तवन करने लगे । वहाँ आत्म साधना में लीन विमल-वाहन नामक योगी के दर्शन किये और उनके चरण कमलों में नतमस्तक होकर दिगम्बरत्व स्वीकार किया तथा मनोरमा ने भी आर्यिका व्रत अङ्गीकार किया । रानी अभयमती ने भी सम्पूर्ण रहस्य प्रकट हो जाने के कारण आत्मघात कर लिया और मरणोपरान्त पाटलिपुत्र नगर में व्यन्तरी देवी के रूप में प्रकट हुई । उसकी वह दासी भी चम्पापुरी से भाग कर वैश्या देवदत्ता की सेविका बनी और सम्पूर्ण कथा सुनाकर वैश्या से सुदर्शन को पथभ्रष्ट करने की योजना बनाई । नवम सर्ग - सुदर्शन दिगम्बर के रूप में पाटलिपुत्र पहुँचे वहाँ दासी द्वारा प्रेरित देवदत्ता वैश्या ने सुदर्शन को घर बुलाया और अपने रूप-सौन्दर्य एवं वाक्चातुर्य से आकर्षित करने का प्रयास किया किन्तु तीन दिन तक अपनी काम चेष्टाओं से सुदर्शन को आकृष्ट करने में देवदत्ता सफल नहीं हो सकी, सुदर्शन ने उसे पंचतत्त्व से निर्मित शरीर की नश्वरता का रहस्य समझाया और भौतिक सुखों के प्रति विरक्ति का सन्देश दिया । सुदर्शन को अपनी चेष्टाओं से विचलित करने में असफल होकर वह देवदत्ता उनकी स्तुति करने लगी और क्षमा प्रार्थना करती हुई जितेन्द्रियत्व की सराहना करने लगी - सुदर्शन भी उसे उपदेश देते हैं - बाह्य वस्तुओं का उपभोग दुःखप्रद है । इस दुःख की उत्पत्ति रोकने के लिये साधना अनिवार्य है । सदाचार, सन्ध्या बन्दन, उपवास, एकाशन, आत्मचिन्तन, संयम, विरक्ति आदि से सम्बद्ध उपदेशपरक एकादश प्रतिमाओं का आश्रय लेने को कहते हैं और आत्मा की बहिरात्मा, अन्तरात्मा, परमात्मा, ये तीन अवस्थाएँ भी अभिव्यञ्जित करते हैं ।
SR No.006275
Book Title20 Vi Shatabdi Ke Jain Manishiyo Ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendrasinh Rajput
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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