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| 58 - प्रकार मुनि के वक्तव्य से अपने पूर्वजन्मों का वृतान्त सुनकर सुदर्शन-मनोरमा आनन्द पूर्वक जीवन व्यतीत करने लगे ।
पञ्चम सर्ग - एक दिन अर्हन्तदेव की पूजा करने के उपरान्त घर की ओर जाते हुए सुदर्शन को देखकर कपिला ब्राह्मणी उस पर आसक्त हो गयी और अपनी दासी के द्वारा छलपूर्वक बुलाती है । वह दासी सुदर्शन को उसके मित्र की अस्वस्थता का विवेचन करती है । जिससे सुदर्शन कपिला ब्राह्मणी के घर पहुँचा, वहाँ शय्या पर लेटी हुई कपिला को अपना मित्र समझ कर हाथ फैलाता है किन्तु कपिला की रतिचेष्टा एवं कामपीड़ा के हाव-भाव देखकर भयभीत हो उठता है और अपने को पुरुषार्थहीन (नपुंसक) निरूपित करके असमर्थता प्रकट की -
हे सुबुद्धे न नाहं तु करत्राणां विनामवाक् ।
त्वदादेशविधिं कर्तुं कातरोऽस्मीति वस्तुतः ॥ इस प्रकार सुदर्शन कपिला ब्राह्मणी के चुङ्गल से निकल कर घर लौटा।
षष्ठ सर्ग - बसन्त ऋतु का आगमन हुआ । प्राकृतिक छटा मनमोहने और आनन्दानुभूति कराने लगी, चम्पापुरी के नरनारी वनविहार के लिए उद्यान में पहुँचे । वहाँ सुदर्शन की पत्नी मनोरमा को पुत्र सहित रानी अभयमती ने देखा और कपिला ब्राह्मणी भी वहीं उपस्थित थी अत: कपिला ब्राह्मणी ने रानी अभयमती से उसका परिचय जानना चाहा- रानी ने उन्हें सुदर्शन की पत्नी और पुत्र होने की सूचना दी, जिससे वह ब्राह्मणी सुदर्शन के नपुंसक इन दोनों में वार्तालाप होता है और इस प्रकार कपिला ब्राह्मणी की रसमयी वाणी सुनकर रानी के मन में भी सुदर्शन के साथ समागम करने की इच्छा जागृत हो गयी रानी अभयवती सुदर्शन को प्राप्त करने के लिए सन्तृप्त और उत्तेजित हो उठी और अपनी दासी के द्वारा अनेक बार समझाये जाने पर भी विरहजन्य पीड़ा से मुक्त न हो सकी । अपनी दासी द्वारा निरूपित पतिव्रतधर्म के महत्त्व की उपेक्षा कर देती है और अनेकान्त का आश्रय लेती है - वह कहती है कि स्त्री भोग्या है, उसे अवसर पाते ही बलिष्ठ पुरुष से रमण करना चाहिये । इस प्रकार अनेक तर्कों से दासी को निरुत्तर करती है । वह दासी भी विचार करती है कि स्वामी की आज्ञा का पालन करना सेवक की भलाई और सुख का कारण है । अत: मुझे भी अपने कर्तव्य का निर्वाह करना चाहिये ।
सप्तम सर्ग - रानी अभयवती की दासी मिट्टी का एक पुतला बनाती है और उसे चादर से ढ़ककर तथा पीठ कर रखकर अन्त:पुर में प्रवेश करने का प्रयास द्वारपाल से निवेदन करने लगी - कि रानी से पुतलाव्रत धारण किया है इसलिए पुतले की पूजा के बिना वह पारणा नहीं करेगी। किन्तु द्वारपाल द्वारा रोके जाने से वह पुतला गिरकर टूट गया जिससे वह बिलख-बिलख कर रोने लगी, द्वारपाल भी रानी के भय से भयभीत होकर क्षमा याचना करने लगा वह प्रतिज्ञा करता है कि मैं कभी ऐसा निन्दनीय कार्य नहीं करूंगा और वह दासी प्रतिदिन पुतला लाने लगी, कृष्णपक्ष की चतुदर्शी की रात्रि में सुदर्शन प्रतिमायोग से श्मशान में ध्यानस्थ बैठा था, उसे एकान्त में पाकर दासी अत्यधिक हर्षित हुई और रानी अभयमती की आसक्ति का श्रांगारिक वर्णन करने लगी, जब सुदर्शन के मन में विकारभाव जागृत नहीं हुए तो वह उसको पीठ पर लादकर अन्तःपुर में ले गई और रानी के पलङ्ग पर बैठा दिया। रानी ने सुदर्शन को कामचेष्टाओं से आकृष्ट करने का बहुत प्रयास किया और अपनी वासना की पूर्ति के लिये कुलीनता का परित्याग कर दिया । कामान्ध रानी अपने प्रयास में असफल