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________________ 57 ही सागरदत्त सेठ की अत्यन्त लावण्यमयी "मनोरमा" नामक पुत्री से उसे प्रेम हो गया, वह भी सुदर्शन पर आसक्त हो गयी । सुदर्शन का मित्र कपिल उसकी मनोदशा से अवगत हो गया । येन-केन-प्रकारेण सेठ सागरदत्त स्वयं अपनी पुत्री मनोरमा के विवाह का प्रस्ताव लेकर वृषभदास के घर आये और अपनी पुत्री को सोंपने की प्रार्थना करने लगे - श्री मत्पुत्रायास्मदङ्गोद्भवा स्यान्नोचेद्धानिः सा पुनीताम्बुजास्या । वृषभदास ने भी उनके प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया और इस प्रकार शुभलग्न मुहूर्त में सुदर्शन और मनोरमा का विवाहोत्सव सानन्द सम्पन्न हुआ । चतुर्थ सर्ग - एक बार चम्पापुरी के उपवन में उपस्थित मुनि का नागरिक अभिनन्दन किया गया । सेठ वृषभदास मुनि के दर्शनार्थ सपरिवार पहुँचे । उन्हें प्रणाम करके उनसे धर्म का स्वरूप जानना चाहा । मुनि के द्वारा धर्म एवं अधर्म की विस्तृत व्याख्या सुनकर वृषभदास का मोहभङ्ग हो गया । उसे कर्म की प्रधानता संयोग वियोग की स्थिति, सच्चिदानन्द का मर्म, संसार की नश्वरता और जीव की मुक्ति आदि को यथार्थता का ज्ञान हो गया तथा उसने दैगम्बरी दीक्षा ग्रहण करके मुनि जीवन अपनाया । अपने पिता को मुनिरूप में देखकर तथा मुनिवर के वचनों से प्रभावित सुदर्शन ने भी मुनि बनने का निश्चय कर लिया । सुदर्शन ने मुनि होने का निश्चय प्रकट करते हुए मनोरमा के प्रति प्रगाढ़ प्रीति का स्पष्टीकरण भी किया । मनि श्री उन दोनों की अगाध प्रीति का कारण पर्वजन्म के संस्कार को मानते हए उनके पूर्वभवों का विवेचन करते हैं - ऋषि ने कहा - पहले जन्म में तुम दोनों भीलभीलनी थे, वह भील जीवहिंसा के कारण कुत्ता हुआ और एक जिनालय के पास मरण होने से वह कुत्ता किसी ग्वाले के यहाँ पुत्र के रूप में उत्पन्न हुआ । किसी सरोवर में उस बालक ने सहस्रदल कमल तोड़ते हुए यह आकाशवाणी सुनी - कि यह सहस्रदल कमल किसी महापुरुष को समर्पित करना । तब उसने वृषभदास के पास आकर सम्पूर्ण जानकारी दी, तत्पश्चात् वृषभदास उस बालक को राजा के पास ले गये अन्ततोगत्वा वे सभी जिनमन्दिर में गये और वह कमल बालक के हाथ से जिनेन्द्र भगवान् को समारोहपूर्वक समर्पित कराया गया । इसके बाद वह गोपकुमार वृषभदास का सेवक बन गया । एक दिन जङ्गल में लकड़ी काटकर लाते हुए उस बालक ने एक वृक्ष के नीचे समाधिस्थ साधु को देखा और विचार किया कि वह ठण्ड से कांप रहे हैं अत: उसने उनके समक्ष आग जलाई और स्वयं बैठ गया। प्रात:काल होने पर साधु ने समाधि से उठकर उसे "नमोऽर्हते" मंत्र दिया और कहा कि कोई भी कार्य प्रारम्भ करने के पूर्व इस मन्त्र का स्मरण कर लेना। तद्नुसार घर आकर वह बालक अपना जीवन यापन करने लगा - एक दिन गाय-भैसों को चराने के लिए वन की ओर गया । एक सरोवर में घुसी हुई भैंस को निकालने के लिए उस मन्त्र का स्मरण करता है तत्पश्चात् सरोवर में कूदा और तीक्ष्ण काष्ठ के प्रहार से उसकी मृत्यु हो गयी जिससे वह उस महामन्त्र के प्रभाव से वृषभदास के यहाँ अब पुत्र सुदर्शन के रूप में उत्पन्न हुआ है तथा और तुम इसी भव से मोक्ष प्राप्त करोगे । वह भीलनी भी मरणोपरान्त भैंस हुई और भैंस भी मृत्यु के पश्चात् धोबिन बनी। वह आर्यिकाओं के सङ्घ के सम्पर्क में आकर क्षुल्लिका बन गई और सभी को वन्दनीय हो गई । वह क्षमा, दया, शील, सन्तोष, सदाचार आहद के कारण मरकर आपकी पत्नी मनोरमा हुई है । अब तुम दोनों धर्मानुकूल आचरण करके अपना जीवन व्यतीत करो। इस
SR No.006275
Book Title20 Vi Shatabdi Ke Jain Manishiyo Ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendrasinh Rajput
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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