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________________ 56 __ प्रथम सर्ग - भारतवर्ष में अङ्गदेश अत्यन्त सम्पन्न, पुण्यमय और विश्रुत है वहाँ की | वृक्ष सम्पदा, नदियाँ, जलपूर्ण सरोवर, रहन-सहन, कृषि, पशुपालन, राजनीति, आर्थिक स्थिति, आचार-विचार आदि आकर्षक के केन्द्र हैं । इस देश में "चम्पापुरी" नगरी बारहवें तीर्थंकर श्री वासुपूज्य स्वामी की निर्वाण भूमि है । इसमें भगवान् महावीर के समकालीन अत्यन्त तेजस्वी, प्रजापालक,“धात्रीवाहन" नामक राजा राज्य करता था उसकी “अभयवती" नामक रानी अत्यधिक रूपवती और विशिष्ट गुणों से सम्पन्न थी। द्वितीय सर्ग - चम्पापुरी में उसी समय अत्यन्त बुद्धिमान, दानी, उदार, वृषभदास सेठ रहता था उसकी पत्नी “जिनमति' भी नारीजनोचित गुणों से युक्त एवं अत्यन्त सुन्दरी थी, उसे सेठ के हृदय की राजहंसी कहा गया है - मालेव या शीलसुगन्धयुक्ता शालेव सम्यक् सुकृतस्य सूक्ता श्री श्रेष्ठिनो मानसराजहंसीव शुद्धभावा खलु वाचि वंशी ॥" ऐसी "जिनमती" ने एक समय रात्रि के अन्तिम प्रहर में पाँच स्वप्न देखे - जिन्हें उसने प्रात:काल ही अपने पति के समक्ष सुना दिया - वह कहती है - कि मैंने प्रथम स्वप्न में सुमेरू पर्वत, द्वितीय स्वप्न में मैं विशाल कल्पवृक्ष, तृतीय स्वप्न में अपार एवं प्रशान्त समुद्र, चतुर्थ स्वप्न में निर्धूम अग्नि तथा पञ्चम स्वप्न में नभचारी विमान के दर्शन किये तत्पश्चात् सेठ सेठानी उपर्युक्त स्वप्नों का अभिप्राय जानने के लिए जिनालय में जाकर योगिराज के समक्ष पहुँचे उन्हें "नमोऽस्तु" कहकर आशीर्वाद प्राप्त किया - इसके पश्चात् उपरिकथित पाँच स्वप्नों का फल पूंछा और मुनि ने स्वप्नों का अभिप्राय प्रकट करते हुए कहा - अहोमहाभाग तवेयभार्या पूम्पूतसन्तानमयेक कार्या । भविष्यतीत्येव भविष्यते वा क्रमः क्रमात्तद्गुणधर्म सेवाः ॥2 आशय यह कि तुम्हारी पत्नी सुयोग्य पुत्र की माँ होगी । ये पाँच स्वप्न सद्गुणों के | परिचायक हैं - तुम्हारा पुत्र (सुमेरूपर्वत के समान) धैर्य, (कल्पवृक्ष) दानशील, (समुद्र) रत्नों का स्वामी, (निधूम अग्नि) कर्मों का नाशक, विमान (देवताओं का प्रियपात्र होगा। मुनि द्वारा उक्त स्वप्नों का अभिप्राय स्पष्ट किये जाने से सेठ-सेठानी आनन्दित हो उठे । इसके उपरान्त जिनमती गर्भवती हुई जिससे उसका शारीरिक सौन्दर्य भी निरन्तर परिष्कृत होने लगा । अपनी पत्नी को इस अवस्था में देखकर सेठ भी अत्यधिक प्रसन्न हुआ । तृतीय सर्ग - जिनमती ने शुभमुहूर्त में पुत्र को जन्म दिया । इस अवसर पर वृषभदास ने आनन्दोत्सव मानते हुए जिनेन्द्रदेव की पूजा की और प्रजा को दान देकर सम्मान प्राप्त किया । अपने पुत्र को जिनदेव के दर्शन की कृपा का पल मानकर उसका नाम "सुदर्शन" रखा - सुतदर्शनतः पुराऽसकौ जिनदेवस्य ययौ सुदर्शनम् । इत चकार तस्य सुन्दरं सुतरां नाम तदा सुदर्शनम् ॥3 इसके पश्चात् माता-पिता को अपनी बालक्रीड़ाओं से पुलिकित करते हुए सुदर्शन शैशवकाल के उपरान्त विद्याध्ययन के लिए गुरु के पास भेजा गया । वहाँ अपनी प्रभामयी प्रतिभा एवं कुशलता के आधार पर वह समस्त विद्याओं में पारङ्गत हो गया । चम्पापुरी के
SR No.006275
Book Title20 Vi Shatabdi Ke Jain Manishiyo Ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendrasinh Rajput
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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