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की प्रशंसा सुनकर रविप्रभ नामक देव परीक्षा लेना चाहता है । इसलिए उसने अपनी पत्नी काञ्चना को भेजा, वह जयकुमार के रूप-सौन्दर्य की सराहना करती हुई विलासपूर्ण चेष्टाओं से उसे आकर्षित करने का प्रयत्न करती है किन्तु जयकुमार उसे हाव-भाव एवं वचनों से प्रभावित नहीं हुआ तथा उसके दुराचरण की निन्दा की । जिससे काञ्चना ने क्रोधित होकर जयकुमार का अपहरण कर लिया । उसी समय सुलोचना ने वहाँ पहुँचकर उसकी निन्दा की । काञ्चना सुलोचना के चारित्र एवं वचनों से प्रभावित हुई और जयकुमार को छोड़ दिया इसके पश्चात् अपनी पत्नी काञ्चना से जयकुमार के शील का माहात्म्य जानकर रविप्रभ उसकी भी स्तुति करने लगा। इसके पश्चात् जयकुमार सपत्नीक अपने नगर में आकर सुखपूर्वक रहने लगा।
पञ्चविंशतितम सर्ग - जयकुमार के मन में संसार की नश्वरता एवं भोग-विलासों के प्रति उदासीनता का भाव उत्पन्न हुआ और आत्मचिन्तन करते हुए उसने वन में रहने की अभिलाषा की।
षडविंशतितम सर्ग - अपने पुत्र जनन्तवीर्य को राजपद पर अभिषिक्त करके जयकुमार ने वनगमन किया - वन में जाकर भगवान् ऋषभदेव की शरण ग्रहण की और उनके प्रकार से भगवान् स्तुति करके निर्वाण पथ विषयक प्रश्न पूंछे ।
सप्तविंशतितम सर्ग - भगवान् ऋषभदेव द्वारा धर्म के स्वरूप की व्याख्या की गई है । इसे सुनकर जयकुमार दृढ़संकल्प के साथ आत्मचिन्तनपूर्वक मुक्ति मार्ग की ओर अग्रसर हुआ ।
अष्टाविंशतितम सर्ग - जयकुमार ने बाह्यपरिग्रहों का परित्याग करते हुए घोर तपस्या प्रारम्भ की और इस प्रकार मन:पर्यय ज्ञान प्राप्त कर लिया तथा दैगम्बरी दीक्षा ग्रहण की और अन्ततोगत्वा सर्वोच्चपद प्राप्त किया ।
यहाँ सुलोचना ने भी सम्राट् भरत की ,महिषी सुभद्रा से प्रेरित होकर दीक्षा ग्रहण की और वह भी अच्युतेन्द्र के रूप में स्वर्ग को प्राप्त हुई। सुदर्शनोदय
आकार - इस महाकाव्य में 9 (नौ) सर्ग हैं । जिनमें कुल 412 पद्य सम्मिलित हैं।
ग्रन्थ का नाम-करण - इस ग्रन्थ का नामकरण नायक के नाम पर किया गया है। क्योंकि चम्पापुर के सेठ सुदर्शन का जीवनवृत्त एवं मोक्ष प्राप्ति का चित्र अङ्कित है; इसीलिए "सुदर्शनोदय" यह नाम अत्यन्त सार्थक है ।
उद्देश्य - सेठ सुदर्शन के माध्यम से ब्रह्मचर्य व्रत का माहात्म्य और शील की सर्वोच्चता | दिखाना ही ग्रन्थकार का प्रमुख लक्ष्य है । इसी उद्देश्य से प्रेरित होकर “सुदर्शनोदय" की रचना की है।
विषय वस्तु - सुदर्शनोदय का संक्षिप्त कथानक निम्नलिखित है -
इस रचना के प्रारम्भ में आमुख शीर्षक में श्री स्याद्वादमहाविद्यालय काशी के साहित्याध्यापक श्री गोविन्द नरहरि वैजापुरकर ने समीक्षा प्रस्तुत की है तथा वाराणसी संस्कृत विश्वविद्यालय के दर्शनाध्यापक पं. श्री अमृतलाल जैन ने "काव्य कसौटी" शीर्षक के द्वारा प्रस्तुत ग्रन्थ की मीमांसा की है । ग्रन्थारम्भ में कविवर आचार्य श्री ने प्रस्तावना में कथावस्तु के अदिस्रोत और सुदर्शन के जीवनवृत्त की पृष्ठभूमि उपस्थित की है ।