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जयकुमार से कहा कि मैं आपके पूर्वजन्म की दासी हूँ और सर्पिणी के काटने से देवी हुई। उसने बताया कि यह मछली पूर्वजन्म में सर्पिणी हुई, फिर काली देवी हुई । इसने पूर्वजन्म के क्रोध के कारण इनका मार्ग रोका। इस प्रकार की कथा सुनकर जयकुमार ने गङ्गादेवी को विदा किया ।
एकविंशतितम सर्ग - हस्तिनापुर जाते हुए जयकुमार सुलोचना द्वारा मार्गस्थ प्राकृतिक दृश्यों का निरीक्षण किया गया । वन में उनका भीलों ने भव्य स्वागत किया । गोप-गोपियों ने दूध, दही एवं कुशल क्षेम के वचनों द्वारा उन्हें प्रभावित कर लिया । इन सबसे से विदा लेकर हस्तिनापुर की ओर चले वहाँ पहुँचने पर जयकुमार और सुलोचना का नागरिक अभिनन्दन किया गया । नगरवासियों, मन्त्रियों ने शुभोत्सव मनाया और सुलोचना को "प्रधान महिषी" के पद पर प्रतिष्ठित किया । काशी नरेश के सेवक जो जयकमार के साथ हस्तिनापर पहँचे थे, जब वापिस आये तो काशीपति अकम्पन को वहाँ की सुख समृद्धि ऐश्वर्य आदि का सारा वृत्तान्त सुनाया।
द्वादविंशतितम सर्ग - इस सर्ग में जयकुमार और सुलोचना के विलासपूर्ण आनन्दमय एवं सुखद जीवन की झाँकी अङ्कित की गई है ।
त्रयोविंशतितम सर्ग - जयकुमार ने अपने अनुज विजय को. राज्यपद पर स्थापित किया। जयकुमार एक दिन नभचारी विमान को देखकर अपने पूर्वजन्म की प्रिया "प्रभावती" की याद करते हुए मूर्च्छित हो गया । सुलोचना भी एक कपोत युगल को देखकर अपने पूर्वजन्म के प्रेमी रतिवर को स्मरण करती हुई मूर्च्छित हो गयी । दोनों की मूर्छा उपचार से दूर की गई - तत्पश्चात् जयकुमार के पूछने पर सुलोचना अपने पूर्व जन्मों का वृत्तान्त सुनाने लगी - वह अधोलिखित है - पुण्डरीकिणी नगरी में कुबेरप्रिय सेठ के यहाँ एक रतिवर कबूतर और रतिषणा कबूतरी रहती थी । एक दिन सेठ के घर आये दो मुनियों को देखकर उस कपोत दम्पत्ति को अपने पूर्वजन्मों का स्मरण हुआ । जिससे उन्होंने ब्रह्मचर्य व्रत धारण कर लिया। तत्पश्चात् रतिवर आदित्यगति एवं हिरण्यवर्मा नाम से उत्पन्न हुआ और रतिषेणा भी प्रभावती के रूप में अवतरित हुई । इस जन्म में भी ये दोनों पति-पत्नी हुए । तदनन्तर पूर्वजन्मों की स्मृति हो जाने से हिरण्यवर्मा ने तपस्या की और प्रभावती भी आर्यिका बन गई।
___ एक दिन तपस्या में संलग्न उन दोनों को उनके पूर्वजन्म के शत्रु विद्युच्चोर ने क्रोधित कर दिया वे दोनों स्वर्ग गये । वहाँ भ्रमण करते हुए एक सर्प सरोवर के पास भीम नामक मुनि को तपस्या करते देखा मुनि ने बताया कि जब हिरण्यवर्मा सुकान्तरूप में था तब मैं उसका भवदेव नामक शत्रु था और कपोत के जन्म के समय भी में विलाव के रूप में उनका शत्रु था और हिरण्यवर्मा के समय भी मैं ही विद्युच्चोर शत्रु था और अब भीम के रूप में प्रकट हुए हैं । इसके बाद सुलोचना स्पष्ट सूचित करती है - जयकुमार ही सुकान्त, रतिवर कबूर, हिरण्यवर्मा तथा स्वर्ग के देव के रूप में रहे हैं। यह प्रसङ्ग सुनकर जयकुमार हर्षित हुआ और उन दोनों को दिव्यज्ञान की भी उपलब्धि हो गयी ।
चतुर्विंशतितम सर्ग - जयकुमार और सुलोचना अनेक पर्वतों एवं तीर्थों का भ्रमण करते हुए हिमालय पर आये वहाँ एक मन्दिर में जिनेन्द्रदेव की पूजा की । तदनन्तर विहार | करते हुए वे दोनों दूर हो गये । उसी समय सौधर्म इन्द्र की सभा में जयकुमार के शील