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चतुर्दशम सर्ग - भगवान् महावीर के ग्यारह गणधर हुए हैं जिनके नाम क्रमशः इस प्रकार हैं - गौतम, इन्द्रभूति, अग्निभूति, वायुभूति, आर्यव्यक्त सुधर्म, मण्डिल मौर्यपुत्र, अकम्पितवीर, अचल परमकान्ति ( मेतार्य उपान्त्य श्रेष्ठ) प्रभास । ये सभी गणधर आचार्यत्व को प्राप्त हुए । इन सभी ने भगवान् महावीर के सन्देश का प्रचार किया । भगवान् ने सभी को आत्मतत्त्व एवं ब्राह्मणत्व का ज्ञान कराया जिससे गौतम इन्द्रभूति के मन के सन्देह जाते रहे और वह अत्यन्त प्रभावित हुआ । वहाँ सभी गणधरों ने उनकी दीक्षा ले ली ।
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पञ्चदशम सर्ग - भगवान् के उपदेशों से सम्पूर्ण समाज प्रभावित हो गया । भगवान् की दिव्यवाणी को गौतमगण भूति जैसे विशेषज्ञ ही समझ सकते थे अतः उनकी वाणी को सर्वजनग्राह्य बनाने के लिए गणधर अनुवाद करते थे। उनके उपदेशों का प्रचार और प्रसार करने के लिए विभिन्न धर्मावलम्बी भी जैन धर्मानुनायी हो गये अनेक राजाओं एवं विशिष्ट पुरुषों ने भगवान् का शिष्यत्व स्वीकार किया और जिनालयों, जिनाश्रमों का निर्माण कराया फलस्वरूप जैनधर्म का उद्घोष सम्पूर्ण विश्व में हो गया ।
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षोडशम सर्ग प्रस्तुत सर्ग में भगवान् के सैद्धान्तिक विचारों को अभिव्यक्त किया गया है अहिंसा, विश्वबन्धुत्व, परोपकार, ममता, दया, आत्मकल्याण आदि भावों के प्रचार के लिए तथा नैतिक चरित्र को सर्वोपरि रखने की भगवान् महावीर ने शिक्षा दी है ।
सप्तदशम सर्ग - महावीर स्वामी का उपदेश है - इस पृथ्वी पर सबको समान अधिकार है - छोटे बड़े नीच उच्च की कल्पना निराधार है । यह संसार परिवर्तनशील है । जिस वस्तु का स्वरूप आज जैसा है उसमें दूसरे समय परिवर्तन हो जाता है । इसलिए मानवमात्र का आदर करके आत्मोन्नति करनी चाहिए अपने ज्ञान, धन, शरीर पर अहंकार न करते हुए काम, क्रोध, लोभ, मोह विकारों से सर्वथा दूर रहना चाहिये और दूसरों की निन्दा नहीं करना चाहिये । समाज में वर्गभेद कर्मानुसार होना चाहिये । इस प्रकार इस सर्ग में सारगर्भित प्रवचन दिये गये हैं ।
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अष्टादशम सर्ग भगवान् महावीर ने संसार चक्र का नियन्ता समय को माना है। समय के प्रभाव से राजा भी रङ्क और रङ्क भी राजा हो जाता है । इसी सन्दर्भ में नाभिराज मनु के पुत्र ऋषभदेव के लोकोपकारी कार्यों का उल्लेख भी किया है - उन्होंने लोगों को जीव और पुद्गल के सम्बन्ध और संसार की स्थिति से अवगत कराया । ऋषभदेव के पश्चात् अजितनाथ आदि तेईस तीर्थंकर और भी हुए, जिन्होंने ऋषभदेव के सिद्धान्तों का प्रचारप्रसार किया ।
एकोनविंशतितम सर्ग इस सर्ग में स्याद्वाद, सप्तभङ्ग तथा वस्तु की नित्य - अनित्य रूप अनेक धर्मात्मिकता की अभिव्यक्ति है । भगवान् महावीर का चिन्तन है कि प्रत्येक पदार्थ सत्स्वरूप है । वह उत्पन्न या नष्ट नहीं होता अपितु उसमें परिवर्तन अवश्य होता है। रूप- रङ्ग परिवर्तित हो जाता है । द्रव्य की अपेक्षा वस्तु नित्य है और पर्याय की अपेक्षा अनित्य है, प्रत्येक पदार्थ के अनेक धर्म हैं । इसी अनेक - धर्मात्मकता का दूसरा नाम " अनेकान्त " है । " अनेकान्त" हमेशा विजयी होता है । इसी प्रकार सत्कार्यवाद की पुष्टि भी करते हैं।
विशंतितम सर्ग - प्रस्तुत सर्ग में भगवान् महावीर द्वारा तत्त्वों की प्रत्यक्ष परोक्ष स्थूलसूक्ष्म, भूत-भविष्य - वर्तमान की व्यापक व्याख्या की गई है और सर्वज्ञता को सिद्ध किया है । आशय यह भी कि महावीर ने स्वयं सर्वज्ञता प्राप्त कर ली थी और उन्होंने "स्याद्वाद'
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