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ग्रहण की । तत्पश्चात् महावीर ने मगसिर (मार्गशीर्ष) मास के कृष्ण पक्ष की दशमी तिथि को दैगम्बरी दीक्षा ले ली और मौन धारण करते हुए सत्याग्रही, आत्मजयी बनने का संकल्प लिया तत्पश्चात् सिंहवृत्ति से पृथ्वी पर भ्रमण करने लगे । अपने वीर नाम को सार्थक करने के लिए तपश्चरण करते हुए अनेक विपत्तियों पर विजय प्राप्त की ।
एकादशम सर्ग - प्रस्तुत सर्ग में अवधि ज्ञान द्वारा भगवान् महावीर को अपने पूर्ववृत्तन्तों को आन पर स्मरण होने का विश्लेषण किया गया है । महावीर सबसे पहले पुरुखा नामक भील थे । तत्पश्चात् आदि तीर्थंकर ऋषभ देव के पौत्र मरीचि के रूप में अवतरित हुआ। फिर ब्राह्मण के रूप में जन्म लिया । वह ब्राह्मण अनेक कुयोनियों में जन्म लेने पश्चात् शाण्डिल्य ब्राह्मण और उसकी पाराशरिका नामकी स्त्री का पुत्र "स्थावर" हुआ । तत्पख्यात् विश्वभूति का पुत्र विश्वनन्दी हुआ । वह विश्वनन्दी तपस्या के कारण स्वर्ग गया, वहाँ से विश्वनन्दी मोदनपुर के राजाप्रजापति का पुत्र "त्रिपृष्ठ' हुआ । इसके बाद विश्वनन्दी रौरव नरक गया और उसे सिंह योनि प्राप्त हुई, वह सिंह मरकर नरक गया और पुनः सिंह हुआ। इस हिंसायुक्त सिंह को किसी मुनि ने उसके पूर्वजन्मों के वृत्तान्त सुना दिये। इसके बाद वह सिंहयोनि से "मृतभोजी" देव हुआ और इसने मनकपुर के राजा कनक के पुत्र रूप में जन्म लिया। मुनिवेष धारण करने के पश्चात् वह मृतभोजी लान्तव स्वर्ग में पहुँचा । इसके बाद इस देव ने साकेत में वज्रषेण राजा के पुत्र के रूप में जन्म लिया और अन्त में तप के प्रभाव से महाशुक्र स्वर्ग को पहुँचा। फिर पुष्कर देश की पुष्करिणी पुरी के सुमित्र राजा का प्रियमित्र नामक राजकुमार हुआ और तपस्या करके सहस्रार स्वर्ग में जन्म लिया, पुनः पुष्कल देश की छत्रपुरी नगरी के राजा अभिनन्दन का नन्द नामक पुत्र हुआ और इसी समय दैगम्बरी दीक्षा लेकर अच्युत स्वर्ग का इन्द्र बन गया, उसी इन्द्र ने अब इस कुण्डनपुर के राजा सिद्धार्थ के राजकुमार वर्धमान के रूप में जन्म लिया है । इस प्रकार महावीर ने पूर्ववृत्तान्तों को स्मरण कर उन्हें अपने पापों का परिणाम निरूपित किया है।
द्वादशम सर्ग - प्रस्तुत सर्ग में ग्रीष्म के साथ ही महावीर के उग्र तप और कैवल्य प्राप्ति का वर्णन हुआ है । भगवान् महावीर प्रचण्ड ग्रीष्म में आत्मपद की प्राप्ति के लिए समस्त परीषहों, उपसर्गों को सहकर चिन्तन करते हैं - आत्मा शाश्वत है, उसे कष्टों से भयभीत नहीं होना चाहिये । इस प्रकार आत्मतत्त्व का विशेष ज्ञान प्राप्त कर तप की समस्त अवस्थाओं को पारकर स्नातक दशा को पहुँचे और पाप पङ्क से संसार की रक्षा तथा सुख शान्ति का संदेश प्रसारित करने के लिए वैशाख मास की शुक्ला दशमी तिथि को भगवान् ने "केवलज्ञान" प्राप्त किया। उनके कर्ममल दूर हो गये वसुन्धरा हर्षित हो गयी इसी समय इन्द्र ने “समवसरण" सभामण्डप का निर्माण किया, जिसमें भगवान ने मुक्तिमार्ग का उपदेश
दिया ।
त्रयोदशम सर्ग - समवसरण सभा के सिंहासन पर विराजमान भगवान महावीर का मुखमण्डल अत्यन्त तेजस्वी था, उनके सदाचार युक्त व्यवहार से प्रभावित उनके जीवजन्तु वहाँ के अतिथि होते थे । समवसरण में भगवान् की दिव्यध्वनि अखण्डरूप से सांसारिक जीवों को पीयूष वर्षा के समान आनन्दित करती थी । एक दिन भगवान् के दिव्य व्यक्तित्व एवं पाण्डित्य से प्रभावित होकर वेदवेदाङ्ग का ज्ञाता इन्द्रभूति ब्राह्मण भी नतमस्तक होता है और उनसे ज्ञान का उपदेश प्राप्त करने की याचना करता है । भगवान् ने आषाढ़ की गुरुपूर्णिमा के दिन उसे सत्य, अहिंसा और त्याग का उपदेश दिया ।