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________________ पन्द्रहवाँ स्वप्न - निर्मल रत्नों की राशि देखी - फलतः गर्भस्थ बालक अनन्त गुणों की राशि से अलङ्कत होगा । सौलहवाँ स्वप्न - धूमरहित अग्नि समूह देखा - यह स्वप्न इस बात का सूचक है - गर्भस्थ शिशु चिरकालीन आत्म स्वरूप शान्ति, ज्ञान प्राप्त करेगा । इस प्रकार उपर्युक्त समस्त स्वप्नों के अनुकूल फलों से युक्त आत्मवान पुत्र होगा। पञ्चम सर्ग - इस सर्ग में प्रियकारिणी की सेवा में उपस्थित श्री, ह्री आदि कुमारिका । देवियों द्वारा अनेक प्रकार से शुश्रूषा करने एवं मनोरञ्जन करने का आकर्षक चित्रण हुआ है । वे अनेक प्रसङ्ग उपस्थित करके मनोविनोद करती हैं। षष्ठ सर्ग - इस सर्ग में गर्भ वृद्धि का चमत्कारिक विवेचन है । ऋतुराज बसन्त के आगमन से प्रकृति में नवस्फूर्ति एवं उल्लास व्याप्त हो गया, इसी सुखद समय में चैत्रमास के शुक्लपक्ष की त्रयोदशी को रानी प्रियकारिणी के गर्भ से पुत्र (भगवान महावीर) का जन्म हुआ सर्वत्र प्रसन्नता हुई। सप्तम सर्ग - जिस समय भगवान् का जन्म हुआ दशोदिशाओं में हर्षातिरेक हो गया महावीर स्वामी के जन्म का समाचार अवधिज्ञान के द्वारा इन्द्रादि देवताओं ने जान लिया और कुण्डनपुर आकर अनेक स्तुतियाँ की । वे भगवान् महावीर को सुमेरु पर्वत पर प्रतिष्ठित करके उनका क्षीरसागर के जल से अभिषेक भी करते हैं । तत्पश्चात् उनके शरीर को पौंछकर इन्द्राणी उन्हें आभूषण पहनाती हैं । इस प्रकार जन्मोत्सव मनाकर देवता आनंदित होकर अपनेअपने स्थान को चले गये । अष्टम सर्ग - राजा सिद्धार्थ ने भी अत्यन्त प्रसन्न प्रतिक्षण उनके शारीरिक सौन्दर्य की वृद्धि को दृष्टिगोचर करते हुए उन प्रभु का "श्री वर्धमान" नाम रखा । श्रिया सम्वर्धमानन्तमनुक्षणमपि प्रभुम् । श्री वर्धमाननामाऽयं तस्य चक्रे विशाम्पतिः ॥ बालक वर्धमान ने निरन्तर बाल्यक्रीड़ाओं से युक्त स्वस्थ देह से युवावस्था में प्रवेश किया । इसी समय पिताश्री सिद्धार्थ ने विवाह प्रस्ताव रखा किन्तु अत्यन्त विनम्रता के साथ पिता के विवाह प्रस्ताव को अस्वीकार करके ब्रह्मचर्य व्रत पालन करने का निश्चय किया। उन्होंने पिता के बार-बार के आग्रह से भी सहमत ने होते हुए ब्रह्मचर्य व्रत का निष्ठा के साथ साधना की । महावीर के तर्कों से प्रभावित पिता सिद्धार्थ ने भी सहर्ष उनके इस निश्चय का समर्थन किया । नवमसर्ग - भगवान् ने संसार की चिन्तनीय दशा पर विचार किया - सर्वत्र स्वार्थसिद्धि, हिंसा, व्यभिचार अधर्म, पापाचार अपनी चरम सीमा पर हैं । ऐसे समय में भगवान् आत्म चिन्तन करते हैं - दुर्मोचमोहस्य हति कृतस्तथा केनाप्युपायेन विदूरताङपथात् ।। परस्परप्रेमपुनीतभावना भवेदमीषामिति मेऽस्ति चेता।' मानवता को सत्पथ की ओर प्रेरित करने के लिए महावीर विचारमग्न हैं । उसी समय धरा पर शीतकाल का आगमन होता है । दशम सर्ग - भगवान् संसार की नश्वरता की प्राकृतिक दृश्यों से शिक्षा लेकर वैराग्य | भावना में लीन हो गये । उनके वैराग्य का समर्थन लौकान्तिक देवों ने भी किया और दीक्षा मनANADOR
SR No.006275
Book Title20 Vi Shatabdi Ke Jain Manishiyo Ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendrasinh Rajput
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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