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मार्ग प्रशस्त किया अतएव सर्वज्ञता प्राप्त करने के लिए मनुष्यों को इस स्याद्वाद का अनुसरण करना चाहिये।
एकविंशम सर्ग - इस सर्ग में शरतकालीन प्राकृतिक वातावरण का प्रभावशाली वर्णन है, इसी समय भगवान् महावीर ने कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी की रात्रि को एकान्तवास किया और रात्रि के अन्तिम समय पावानगरी के उपवन में उन्होंने अपना पार्थिव शरीर त्यागकर मोक्ष (निर्वाण ) प्राप्त किया । उनके निर्वाणोपरान्त उनके शिष्य इन्द्रभूति को उनका स्थान प्राप्त हुआ ।
द्वाविंशम सर्ग भगवान् महावीर के मोक्ष प्राप्त करने के पश्चात् जैनधर्म की दो धाराएँ (दिगम्बर और श्वेताम्बर) हो गयी । मौर्य राजाओं एवं विक्रमादित्य के पश्चात् जैनधर्म में दुराग्रह पनपने लगा और यह धर्म साम्प्रदायिक विभाजन का शिकार हो गया। कहने का आशय यह कि महावीर के पश्चात् जैनधर्म की अवनति हुई ।
जयो
यह एक महाकाव्य है ।
नामकरण
आकार यह ग्रन्थ 28 सर्गों में निबद्ध है । जिनकी श्लोक संख्या 3079 है । इस ग्रन्थ में हस्तिनापुर के अधिपति जयकुमार का जीवन वृत्त नायक के रूप में रेखांकित है । अतः नायक के नाम पर ग्रन्थ का नाम “जयोदय" रखा गया है । जयकुमार वास्तव में अपने पराक्रम, प्रताप, वैभव एवं गुणों से सर्वोत्तम ( पुरुषोत्तम ) के रूप में प्रतिष्ठित हैं । "जयोदय" नाम प्रसङ्गानुकूल है ।
रचना का उद्देश्य - जयोदय के प्रथम पद्य से यह आभास मिलता है कि कवि ने आत्म कल्याण के लिए उक्त महाकाव्य का प्रणयन किया है ।
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विषयवस्तु - उक्त ग्रन्थ के 28 सर्गों में जयकुमार और उसकी धर्मपत्नी सुलोचना की कथा का विवेचन कर अपरिग्रह व्रत का माहात्म्य निरूपित है । प्रत्येक सर्ग की कथा का क्रमबद्ध सारांश अधोलिखित है ।
प्रथम सर्ग - प्राचीनकाल में हस्तिनापुर में जयकुमार राजा पराक्रमी, नीतिज्ञ, गुणवान, रूप-सौन्दर्य से मण्डित था । उसकी कीर्ति सुनकर काशीनरेश अकम्पन की पुत्री सुलोचना ने उसके साथ अपने विवाह का निश्चय किया । जयकुमार भी सुलोचना के लावण्य एवं गुणों को सुनकर प्रभावित हुआ। एक दिन उसके उद्यान में किसी महर्षि ने आकर श्रद्धावनत राजा को मार्मिक उपदेश दिये ।
द्वितीय सर्ग - तपस्वी के द्वारा गृहस्थधर्म एवं राजा के लिए कर्तव्यपथ प्रदर्शक उपदेशों को जयकुमार के साथ ही किसी सर्पिणी ने भी सुना था। मुनि के पाण्डित्यपूर्ण, आदर्श एवं समयोचित प्रवचनों से रोमाञ्चित राजा ने जब गुरु की आज्ञा से घर की ओर प्रस्थान किया तभी सर्पिणी को किसी अन्य सर्प से रतिक्रीड़ा में संलग्न देखकर अपने कर में स्थित कमल से प्रहार किया लेकिन राजा के साथियों ने सर्पिणी को आहत करके मार डाला । उसने अपने पति के पास देवाङ्गना के रूप में पहुँचकर जयकुमार से ईर्ष्याभाव के कारण सम्पूर्ण शिकायत एवं अपनी मनोव्यथा व्यक्त की । तदनन्तर अपनी पत्नी पर विश्वास करके सर्प क्रोधित होकर जयकुमार पर आक्रमण करने के लिए उसके समीप पहुँचा । उस समय राजा अपनी शनियों को वही वृत्तान्त सुना रहा था । राजा के वक्तव्य को सुनकर नागकुमार का अज्ञान