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पूर्व नामक वाङ्मय भी सम्मिलित है । भगवान् महावीर के पहले से जो ज्ञान परम्परा चली आ रही थी, उसे ही उत्तरवर्ती साहित्य रचना के समय "पूर्व" कहा गया है । सामान्य व्यक्ति इन पूर्वो को समझने में असमर्थ थे । इसलिए गणधरों ने तीर्थङ्कर महावीर की दिव्यध्वनि के आधार पर प्राकृत में द्वादशाङ्ग वाणी को निबद्ध किया इस विवेचन से स्पष्ट है कि जैन रचनाकारों की मूलभाषा प्राकृत थी । संस्कृत के प्रचार युग में जैनाचार्य और मनीषी भी काव्य और दर्शन सम्बन्धी रचनाओं का प्रणयन इसी भाषा में करने लगे।
___ काव्य सृजन की दृष्टि से सबसे पहला संस्कृत का जैन कवि आचार्य समन्तभद्र है। इनका समय दूसरी शताब्दी ईस्वी है । संस्कृत भाषा में जैनकाव्य की परम्परा द्वितीय शताब्दी से आरम्भ होकर अद्यावधि (20वीं शताब्दी तक) अनवरत प्रवर्तमान है ।
संस्कृत काव्य के विकास काल में जितने काव्य ग्रन्थ जैन आचार्यों और मनीषियों ने लिखे हैं, उनसे कई गुने अधिक हासोन्मुख काल में भी जैनों ने लिखे हैं । इसीलिए जैन संस्कृत काव्य ग्रन्थों में संस्कृत के विकास और हासोन्मुख काल की सभी प्रवृत्तियों का समवाय प्राप्त होता है ।
जैन संस्कृत काव्यों के क्रमिक विकास की परम्परा का इतिहास विश्लेषित करने के पूर्व इनकी उन विशेषताओं पर विचार करना आवश्यक है, जो वैदिक कवियों के संस्कृत काव्यों की अपेक्षा भिन्न हैं । वैदिक कवियों के और जैन कवियों के संस्कृत काव्य रचना में बाह्य दृष्टि से अनेक समानताओं के रखने पर भी अन्तरंग दृष्टि से बहुत सी भिन्नताएँ भी हैं। क्योंकि काव्य का सृजन किसी विशेष सिद्धान्त को सम्मुख रखकर होता है । अतः स्थापत्य, वस्तु गठन आदि की समानता होने पर भी सिद्धान्त की अपेक्षा काव्यात्मा में अन्तर आ ही जाता है । इतने से अन्तर के कारण उच्चकोटि के काव्यों की अवहेलना साम्प्रदायिकता के नाम पर नहीं की जा सकती है । जीवन प्रक्रिया एवं रसोद्बोधन की क्षमता सभी काव्यों में स्पष्ट है कि संस्कृत जैन काव्यों की आधारशिला द्वादशाङ्ग वाणी है । इस वाणी में आत्मविकास द्वारा प्रत्येक व्यक्ति को मोक्ष प्राप्त करने का पूर्ण अधिकार प्राप्त है ।
रत्नत्रय - सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की साधना द्वारा मानव मात्र चरमसुख को प्राप्त कर सकता है । संस्कृत भाषा में रचित प्रत्येक जैन काव्य उक्त संदेश को ही पुष्पों की सुगन्ध की भांति विकीर्ण करता है ।
2. जैन संस्कृत काव्य स्मृति अनुमोदित वर्णाश्रम धर्म के पोषक नहीं हैं । इनमें जातिवाद के प्रति क्रांति निदर्शित है । इनमें आश्रम व्यवस्था भी मान्य नहीं है । समाज श्रावक और मुनि इन दो वर्गों में विभक्त है। चतुर्विध संघ - मुनि, आर्यिका श्रावक, श्राविका को ही समाज माना गया है । इस समाज का विकास श्रावक और मुनि के पारस्परिक सहयोग से होता है ।
तप, त्याग संयम एवं अहिंसा की साधना के द्वारा मानव मात्र समान रूप से आत्मोत्थान करने का अधिकार है । आत्मोत्थान के लिए किसी परोक्ष शक्ति की सहायता अपेक्षित नहीं है । अपने पुरुषार्थ के द्वारा कोई भी व्यक्ति अपना सर्वाङ्गीण विकास कर सकता है ।
3. संस्कृत जैन काव्यों के नायक देव, ऋषि, मुनि नहीं है । अपितु राजाओं के साथ सेठ, सार्थवाह, धर्मात्मा जन आदि हैं ।
नायक अपने चरित्र का विकास इन्द्रियदमन और संयम पालन द्वारा स्वयं करता है। आरम्भ से ही नायक त्यागी नहीं होता वह अर्थ और काम दोनों पुरुषार्थों का पूर्णतया उपयोग