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- 42 --- करता हुआ किसी निमित्त विशेष को प्राप्त कर विरक्त होता है और आत्मसाधना में लग जाता है । जिन काव्यों के नायक तीर्थंकर या अन्य पौराणिक महापुरुष हैं, उन काव्यों में तीर्थंकर आदि पुण्य पुरुषों की सेवा के लिए स्वर्ग से देवी-देवता आते हैं। पर वे महापुरुष भी अपने चरित्र का उत्थान स्वयं अपने पुरुषार्थ द्वारा ही करते हैं ।
4. जैन संस्कृत काव्यों के कथा स्रोत वैदिक पुराणों या अन्य ग्रन्थों से ग्रहण नहीं किये गये हैं, प्रत्युत से लोक प्रचलित प्राचीन कथाओं एवं जैन परम्परा के पुराणों से संग्रह किये गये हैं । कवियों ने कथा वस्तु को जैन धर्म के अनुकूल बनाने के लिए उसे पूर्णतया जैन धर्म के सांचे में ढालने का प्रयास किया है । रामायण या महाभारत के कथांश जिन काव्यों के आधार हैं, उनमें भी उक्त कथाएँ जैन परम्परा के अनुसार अनुमोदित ही हैं । इनमें बुद्धि-सङ्गत यथार्थवाद द्वारा विकारों का निराकरण करके मानवता की प्रतिष्ठा की गई है।
5. संस्कृत जैन काव्यों के नायक जीवन-मूल्यों, धार्मिक निर्देशों और जीवन तत्त्वों | की व्यवस्था तथा प्रसार के लिए "मीडियम" का कार्य करते हैं । वे संसार के | दु:खों एवं जन्म मरण के कष्टों से मुक्त होने के लिए रत्नत्रय का अवलम्बन ग्रहण करते हैं । संस्कृत काव्यों के "दुष्ट निग्रह" और "शिष्ट-अनुग्रह" आदर्श के स्थान पर दु:ख निवृत्ति की नायक का लक्ष्य होता है स्वयं की दुःख निवृत्ति के आदर्श से समाज को दुः ख निवृत्ति का संकेत कराया जाता है । व्यक्तिहित और समाजहित का इतना एकीकरण होता है कि वैयक्तिक जीवन मूल्य की सामाजिक जीवन मूल्य के रूप में प्रकट होते हैं । संस्कृत जैन काव्यों के इस आन्तरिक रचना तन्त्र को रत्नत्रय के त्रिपार्श्व समत्रिभुज द्वारा प्रकट होना माना जा सकता है । इस जीवन त्रिभुज की तीनों भुजाएँ समान होती हैं और कोण भी त्याग, संयम एवं तप के अनुपात से निर्मित होते हैं ।
6.जैन संस्कृत काव्यों के रचना-तन्त्र में चरित्र का विकास प्रायः लम्बमान (वरटीकल) रूप में नहीं होता जबकि अन्य संस्कृत काव्यों में ऐसा ही होता है।
7. संस्कृत के जैन काव्यों में चरित्र का विकास प्रायः अनेक जन्मों के बीच में हुआ है । जैन कवियों ने एक ही व्यक्ति के चरित्र को रचनाक्रम से विकसित रूप में प्रदर्शित करते हुए वर्तमान जन्म में निर्वाण तक पहुँचाया है। प्रायः प्रत्येक काव्य के आधे से अधिक सर्गों में कई जन्मों की परिस्थितियों और वातावरणों के बीच जीवन की विभिन्न घटनाएँ अङ्कित होती हैं । काव्यों के उत्तरार्द्ध में घटनाएँ इतनी जल्दी आगे बढ़ती हैं । जिससे आख्यान में क्रमशः क्षीणता आती-जाती हैं । पूर्वार्थ में पाठक को काव्यानन्द प्राप्त होता है जबकि उत्तरार्द्ध में आध्यात्मिकता और सदाचार ही उसे प्राप्त होते हैं। इसका कारण यह भी हो सकता है कि शान्तरस प्रधान काव्यों में निर्वेद की स्थिति का उत्तरोत्तर विकास होने से अन्तिम उपलब्धि अध्यात्म तत्त्व के रूप में ही सम्भव होती है । चूँकि संस्कृत जैन काव्यों की कथावस्तु अनेक जन्मों से सम्बन्धित होती है अत: चरित्र का विकास अनुप्रस्थ (हारीजेन्टल) रूप में ही घटित हुआ है । जीवन के विभिन्न पक्ष, विभिन्न जन्मों की विविध घटनाओं में समाहित है।
8. संस्कृत जैन काव्यों में आत्मा की अमरता और जन्म-जन्मान्तरों के संस्कारों की अनिवार्यता दिखलाने के लिए पूर्व जन्म के आश्यानों का संयोजन किया गया है। प्रसङ्ग वश चार्वाक आदि नास्तिक वादों का निरसन कर आत्मा की अमरता और कर्म संस्कार की विशेषता