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तृतीयः अध्याय
बीसवीं शताब्दी के साधु-साध्वियों द्वारा प्रणीत प्रमुख जैन काव्यों का अनुशीलन
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प्रास्ताविक :
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'काव्य" शान्ति से ओत-प्रोत क्षणों में लिखित कोमल शब्दों, मधुर कल्पनाओं एवं उद्रेकमयी भावनाओं की मर्मस्पृग् भाषा है । यह सहज रूप में तरङ्गित भावों का मधुर प्रकाशन है । वस्तुतः काव्य-भाषा के माध्यम से अनुभूति और कल्पना द्वारा जीवन का परिष्करण है | मानव जीवन काव्य का पाथेय ग्रहण कर सांस्कृतिक सन्तरण की क्षमता अर्जित करता है । राष्ट्रीय, सांस्कृतिक और जातीय भावनाएँ काव्य में सुरक्षित रहती हैं । संस्कृत काव्य भारत वर्ष के गर्वोन्नत भाल की दीप्ति से सङ्कान्त जीवन का चित्र 1
संस्कृत काव्य का प्रादुर्भाव भारतीय संस्कृति के उष:काल में ही हुआ । इसके आविर्भाव और विकास की सोपान श्रृङ्खला इस शोध प्रबन्ध के प्रथम अध्याय में निदर्शित है । संस्कृत काव्य अपनी रूपमाधुरी द्वारा वैदिक काल से ही प्रभावित करता आया है।
जैन संस्कृत काव्य :
जैनाचार्य और जैनमनीषी प्रारम्भ में प्राकृत भाषा में ही ग्रन्थ रचना करते थे प्राकृत जन सामान्य की भाषा थी, अतः लोक परक सुधारवादी रचनाओं का प्रणयन जैनाचार्यों ने प्राकृत भाषा में ही प्रारम्भ किया । भारतीय वाङ्मय के विकास में जैनाचार्यों के द्वारा विहित योगदान की प्रशंसा डॉ. विन्टरनित्स् ने बहुत अधिक की है ।'
प्रसिद्ध जैन-ग्रन्थ " अनुयोगद्वार सूत्र" में प्राकृत और संस्कृत दोनों भाषाओं को ऋषिभाषित कहकर समान रूप से सम्मान प्रदर्शित किया गया है इस उल्लेख से स्पष्ट है कि संस्कृत और प्राकृत दोनों ही भाषाओं में साहित्य सृजन करने की स्वीकृति जैनाचार्यों द्वारा प्रदान की गई है ।
ऐतिहासिक प्रमाण उपलब्ध हैं कि ईस्वी सन् की आरम्भिक शताब्दियों में संस्कृत भाषा तार्किकों के तीक्ष्ण तर्क बाणों के लिए तूणीर बन चुकी थी । इसलिए संस्कृत भाषा का अध्ययन, मनन न करने वालों के लिए विचारों की सुरक्षा खतरे में थी । भारत के समस्त दार्शनिकों ने दर्शन शास्त्र के गंम्भीर ग्रन्थों का प्रणयन संस्कृत भाषा में प्रारम्भ किया । जैन कवि और दार्शनिक भी इस दौड़ में पीछे नहीं रहे । उन्होंने प्राकृत के समान ही संस्कृत पर अपना अधिकार कर लिया और काव्य तथा दर्शन के क्षेत्र को अपनी महत्त्वपूर्ण रचननाओं के द्वारा समृद्ध बनाया ।
जैन काव्य रचना का मुख्य आधार : द्वादशाङ्ग
वाणी :
जिस प्रकार वैदिक धर्म में वेद सर्वोपरि है और बौद्ध धर्म में त्रिपिटक, उसी प्रकार जैन धर्म में द्वादशाङ्गवाणी को सर्वोपरि स्थान प्राप्त है । इस द्वादशाङ्ग वाङ्मय में चौदह