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283 काव्यों के आधार हैं उनमें भी उक्त कथाएँ जैन परम्परा के अनुसार अनुमोदित ही है । इनमें बुद्धि सङ्गत यथार्थवाद द्वारा विकारों का निराकरण करके मानवता की प्रतिष्ठा की गई है।
(5) संस्कृत जैन काव्यों के नायक जीवन-मूल्यों, धार्मिक निर्देशों और जीवन तत्त्वों की व्यवस्था तथा प्रसार के लिए "मीडियम" का कार्य करते हैं । वे संसार के दुःखों एवं जन्म-मरण के कष्टों से मुक्त होने के लिए रत्नत्रय का अवलम्बन ग्रहण करते हैं । संस्कृत काव्यों के "दुष्ट-निग्रह" और शिष्ट अनुग्रह" आदर्श के स्थान पर दुःख निवृत्ति ही नायक का लक्ष्य होता है । स्वयं की दुःख निवृत्ति के आदर्श से समाज को दुःख निवृत्ति का सङ्केत कराया जाता है । व्यक्ति हित और समाजहित का इतना एकीकरण होता है कि वैयक्तिक जीवनमूल्य ही सामाजिक जीवन मूल्य के रूप में प्रकट होते हैं । संस्कृत जैन काव्यों के इस आन्तरिक रचना तंत्र को रत्नत्रय के त्रिपार्श्व सम त्रिभुज द्वारा प्रकट होना माना जा सकता है । इस जीवन त्रिभुज की तीनों भुजाएँ समान होती हैं और कोण भी त्याग, संयम, एवं तप के अनुपात से निर्मित होते हैं।
(6) जैन संस्कृत काव्यों के रचना तन्त्र में चरित्र का विकास प्रायः लम्बमान...। (वरटीकल) रूप में नहीं होता जबकि अन्य संस्कृत काव्यों में ऐसा ही होता है ।
__(7) संस्कृत के जैन काव्यों में चरित्र का विकास प्रायः अनेक जन्मों के बीच में हुआ है । जैन कवियों ने एक ही व्यक्ति के चरित्र को रचना क्रम से विकसित रूप में प्रदर्शित करते हए वर्तमान जन्म में मोक्ष (निर्वाण तक) पहुँचाया है। प्रायः प्रत्येक काव्य के आधे से अधिक सर्गों में कई जन्मों की परिस्थितियों और वातावरणों के बीच जीवन की विभिन्न घटनाएँ अङ्कित होती हैं । काव्यों के उत्तरार्द्ध में घटनाएँ इतनी जल्दी आगे बढ़ती हैं - जिससे आख्यान में क्रमशः क्षीणता आती-जाती है । पूर्वार्ध में पाठक को काव्यानन्द प्राप्त होता है जबकि उत्तरार्द्ध में आध्यात्मिकता और सदाचार ही उसे प्राप्त होते हैं । इ
। इसका कारण यह भी हो सकता है कि शान्त रस प्रधान काव्यों में निर्वेद की स्थिति का उत्तरोत्तर विकास होने से अन्तिम उपलब्धि अध्यात्म तत्त्व के रूप में ही सम्भव होती है। चूंकि संस्कृत जैन काव्यों की कथावस्तु अनेक जन्मों से सम्बन्धित होती है अत: चरित्र का विकास अनुप्रस्थ (हारी-जेन्टल) रूप में ही घटित हुआ है । जीवन के विभिन्न पक्ष, विभिन्न जन्मों की विविध घटनाओं में समाहित हैं।
(8) संस्कृत जैन काव्यों में आत्मा की अमरता और जन्म जन्मान्तरों के संस्कारों की अनिवार्यता दिखलाने के लिए पूर्व जन्म के आख्यानों का संयोजन किया गया है। प्रसंगवश चार्वाक आदि नास्तिकवादों का निरसन कर इनमें आत्मा की अमरता और कर्म संस्कार की विशेषता का विवेचन किया गया है। पूर्व जन्म के सभी आख्यान नायकों के जीवन में कलात्मक शैली में गुम्फित हुए हैं । दार्शनिक सिद्धान्तों के प्रतिपादन से यत्र-तत्र काव्य रस में न्यूनन्ता आ गई है । पर कवियों ने आख्यानों को सरस बनाकर इस न्यूनता को संभाल भी लिया है।
(9) संस्कृत के जैन कवियों की रचनाएँ श्रमण संस्कृति के प्रमुख आदर्श-स्याद्वाद विचार समन्वय और अहिंसा के पाथेय को अपना सम्बल बनाते हैं । इन काव्यों का अंतिम लक्ष्य प्रायः मोक्ष-प्राप्ति है । इसलिए आत्मा के उत्थान और चरित्र-विकास की विभिन्न कार्यभूमिकाएँ स्पष्ट होती हैं ।
(10) व्यक्तियों की पूर्ण-समानता का आदर्श निरूपित करने और मनुष्य-मनुष्य के बीच जातिगत भेद को दूर करने के लिए काव्य के रस-भाव मिश्रित परिप्रेक्ष्य में कर्मकाण्ड,