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पुरोहितवाद एवं कर्तृत्ववाद का निरसन किया गया है । वैभव के मद में निमग्न अशान्त संसार को वास्तविक शान्ति प्राप्त करने का उपचार परिग्रह-त्याग एवं इच्छा नियन्त्रण निरूपित करके मनोहर काव्य शैली में प्रतिपादन किया है ।
(11) मानव सन्मार्ग से भटक न जाये, इसलिए मिथ्यात्व को विश्लेषण करके सदाचार परक तत्त्वों का वर्णन करना भी संस्कृत जैन कवियों का अभीष्ट है । यह सब उन्होंने काव्य की मधुर शैली में ही प्रस्तुत किया है।
(12) जैन संस्कृत कवियों की एक प्रमुख विशेषता यह भी है कि वे किसी भी नगर का वर्णन करते समय उसके द्वीप, क्षेत्र एवं देश आदि का निर्देश अवश्य करेंगे।
(13) कलापक्ष और भावपक्ष में जैन काव्य और अन्य संस्कृत काव्यों के रचना तंत्र में कोई विशेष अन्तर नहीं है पर कुछ ऐसी बाते भी हैं जिनके कारण अन्तर माना जा सकता है । काव्य का लक्ष्य केवल मनोरञ्जन कराना ही नहीं है. प्रत्यत किसी आदर्श को प्राप्त कराना है । जीवन का यह आदर्श ही काव्य का अन्तिम लक्ष्य होता है । इस अंतिम लक्ष्य की प्राप्ति काव्य में जिस प्रक्रिया द्वारा सम्पन्न होती है । यह प्रक्रिया ही काव्य की टेकनीक" है । श्री कालिदास, भारवि, माघ आदि संस्कृत के कवियों की रचनाओं में चारों और से घटना, चरित्र और संवेदन सङ्गठित होते हैं तथा यह सङ्गठन वृत्ताकार पुष्प की तरह पूर्ण विकसित होकर प्रस्फुटित होता है और सम्प्रेषणीयता केन्द्रीयप्रभाव को विकीर्ण कर देती है । इस प्रकार अनुभूति द्वारा रस का संचार होने से काव्यानन्द प्राप्त होता है । और अंतिम साध्य रूप जीवन आदर्श तक पाठक पहुँचने का प्रयास करता है । इसलिए कालिदास आदि का रचना तन्त्र वृत्ताकार है । पर जैन संस्कृत कवियों का रचनातन्त्र हाथी दांत के नुकीले शङ्क के समान मसृण और ठोस होता है । चरित्र, संवेदन और घटनाएँ वृत्त के रूप में संगठित होकर भी सूची रूप को धारण कर लेती है तथा रसानुभूति कराती हुई तीर की तरह पाठक को अंतिम लक्ष्य पर पहुँचा देती हैं।
(14) जैन काव्यों में इन्द्रियों के विषयों की सत्ता रहने पर भी आध्यात्मिक अनुभव की संभावनाएँ अधिकाधिक रूप में वर्तमान रहती हैं । इन्द्रियों के माध्यम से सासारिक रूपों की अभिज्ञता के साथ काव्य प्रक्रिया द्वारा मोक्ष तत्त्व की अनुभूति भी विश्लेषित की जाती है । भौतिक ऐश्वर्य, सौन्दर्य परक अभिरूचियाँ शिष्ट एवं परिष्कृत संस्कृति के विश्लेषण के साथ आत्मोत्थान की भूमिकाएँ भी वर्णित रहती है।
(ब) बीसवीं शताब्दी के संस्कृत जैन काव्यों का प्रदेय
बीसवीं शताब्दी में संस्कृत साहित्य की श्रीवृद्धि करने में जैन-विषयों पर प्रणीत साहित्य का भी विशिष्ट योगदान है । जैन विषयों पर संस्कृत में काव्य रचनाएँ करने वाले बीसवीं शताब्दी के रचनाकारों ने काव्य की प्राय: सभी विधाओं को अपनी लेखनी से समद्ध बनाया है । संस्कृत जैन काव्यों के अन्तर्गत-महाकाव्य, खण्डकाव्य गीतिकाव्य, शतककाव्य, दूतकाव्य, | चम्पूकाव्य, स्तोत्रकाव्य, श्रावकाचार तथा नीतिविषयक काव्य ग्रन्थों के साथ ही साथ
पूजाव्रतोद्यापना काव्य और दार्शनिक काव्य रचनाएँ भी प्राप्त होती हैं। इन विधाओं के अतिरिक्त स्फुट रचनाओं के माध्यम से भी मनीषियों ने अपनी प्रतिभा का प्रकाशन मुक्तक शैली में किया है । इस शती के रचनाकारों की लेखनी पर बीसवीं शताब्दी की हीयमान प्रवृत्तियों का कोई भी प्रभाव परिलक्षित नहीं होता है सम-सामयिक समस्याओं के दुश्चक्र में साहित्यकार