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षष्ठ अध्याय
बीसवीं शताब्दी के संस्कृत जैन काव्यों का वैशिष्ठ्य
प्रदेय तथा तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अनुशीलन (अ) बीसवीं शताब्दी के संस्कृत जैन काव्यों का वैशिष्ट्य
विवेच्य शोध विषय का समग्रतया अनुशीलन करने पर शोधकर्ता को बीसवीं शताब्दी में रचित जैन काव्यों में रचनातन्त्र, कथानक, नायक चयन, कवि कल्पना में अवतरित तत्त्वों, भावपक्ष कलापाक्ष आदि के आधार पर निम्नलिखित विशेषताएँ प्राप्त हुई हैं ।
(1) संस्कृत जैन काव्यों की आधारशिला द्वादशांग वाणी है । इस वाणी में आत्मविकास द्वारा प्रत्येक व्यक्ति को मोक्ष प्राप्त करने का पूर्ण अधिकार प्राप्त है । रत्नत्रय-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र की साधना द्वारा मानव मात्र चरम सुख को प्राप्त कर सकता है । संस्कृत भाषा में रचित प्रत्येक जैन काव्य उक्त सन्देश को ही पुष्पों की सुगन्ध की भांति विकीर्ण करता है।
(2) जैन संस्कृत काव्य स्मृति अनुमोदित वर्णाश्रम धर्म के पोषक नहीं है । इनमें जातिवाद के प्रति क्रांति निदर्शित है । इनमें आश्रम व्यवस्था भी मान्य नहीं है । समाजश्रावक और मुनि इन दो वर्गों में विभक्त है । चतुर्विध सङ्घ-मुनि, आर्यिका श्रावक, श्राविका को ही समाज माना गया है। इस समाज का विकास श्रावक और मुनि के पारस्परिक सहयोग से होता है।
तप, त्याग, संयम एवं अहिंसा की साधना के द्वारा मानव मात्र समान रूप से आत्मोत्थान करने का अधिकारी है । आत्मोत्थान के लिए किसी परोक्ष शक्ति की सहायता अपेक्षित नहीं है । अपने पुरुषार्थ के द्वारा कोई भी व्यक्ति अपना सर्वाङ्गीग विकास कर सकता है ।
(3) संस्कृत जैन काव्यों के नायक, देव, ऋषि, मुनि नहीं है, अपितु राजाओं के साथ सेठ, सार्थवाह, धर्मात्मा, व्यक्ति, तीर्थङ्कर शूरवीरिया सामान्य जन आदि हैं ।
नायक अपने चारित्र का विकास इन्द्रिय दमन और संयम पालन द्वारा स्वयं करता है । आरंभ से ही नायक त्यागी नहीं होता, वह अर्थ और काम दोनों पुरुषार्थों का पूर्णतया उपयोग करता हुआ किसी निमित्त विशेष को प्राप्त कर विरक्त होता है और आत्मसाधना में लग जाता है । जिन काव्यों के नायक तीर्थङ्कर या अन्य पौराणिक महापुरुष हैं उन काव्यों में तीर्थङ्कर आदि पुष्प पुरुषों की सेवा के लिए स्वर्ग से देवी-देवता आते हैं। पर वे महापुरुष भी अपने चरित्र का उत्थान स्वयं अपने पुरुषार्थ द्वारा ही करते हैं।
(4) जैन संस्कृत काव्यों के कथा-स्त्रोत वैदिक पुराणों या अन्य ग्रन्थों से ग्रहण नहीं किये गये हैं, प्रत्युत वे लोक प्रचलित प्राचीन कथाओं एवं जैन पपम्परा के पुराणों से संङ्गह किये गये हैं । कवियों ने कथावस्तु को जैन धर्म के अनुकूल बनाने के लिए उसे पूर्णतया जैन धर्म के सांचे में ढालने का प्रयास किया है । रामायण या महाभारत के कथांश जिन