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________________ 268 "पं. जुगलकिशोर मुख्तार" की रचना का साहित्यिक शैलींगत विवेचन जैनादर्श 'जैनादर्श" शीर्ष रचना शान्त रस प्रधान है । इसके सभी दस पद्य अनुष्टुप् छन्द में आबद्ध है । इसमें जैनधर्म के प्रमुख सिद्धान्तों की व्याख्या प्रस्तुत है - सरस, सरल, बोधगम्य संस्कृत शब्दावली में रचनाकार ने गम्भीर भावों की अभिव्यक्ति कुशलता के साथ की है। आलंकारिक सौन्दर्य उपस्थित है । शब्दालङ्कार उपलब्ध है । प्रसादगुण पूर्ण वैदर्भी रीति का रचना में प्रभाव विद्यमान हैं । जैनो जैन: जैन: शान्तिसन्तोषधारकः सत्यपरायणः, दया- दानपरो सुशीलsaञ्चको 11462 ध्यातव्य इस अध्याय में बीसवीं शताब्दी में रचित "संस्कृत जैन काव्यों" में से प्रतिनिधि रचनाओं को ही साहित्यिक तथा शैलीगत अध्ययन के लिये आधार बनाया गया है । उन्हीं को लक्ष्य में रखकर उन्हें काव्यशास्त्र के निकष पर मैंने सुपरीक्षित किया है और उसकी निष्पत्तियाँ विस्तारपूर्वक यथास्थान उल्लिखित हैं । ऐसा करते समय यह तथ्य सदैव ध्यान में रहा है कि उपरि विवेचित रचनाओं के अतिरिक्त सामान्य रचनाओं में भी यही साहित्यिक अलङ्करण की पद्धति भूयो - भूयः निदर्शनीय है । शैलीगत अध्ययन करते समय भी उपर्युक्त मान्याताओं को प्राथमिकता के आधार पर चरण किया गया है। यदि इस शताब्दी के समस्त संस्कृत जैन काव्यों का साहित्यिक और शैलीगत अध्ययन का विचार बनाता भी तो शोधप्रबन्ध के सीमित विचार पृष्ठों में कदाचित् वह अनुपयुक्त ही होता । इसीलिए मैंने प्रतिनिधि काव्य रचनाओं को ही बीसवीं शताब्दी का प्रतिबिम्ब मानकर इस शताब्दी के प्रतिनिधि प्रमुख जैन संस्कृत काव्यों को ही लक्ष्य में रखकर साहित्यिक तथा शैलीगत अध्ययन प्रस्तुत किया है । उपसंहार उपर्युक्त विश्लेषण में संस्कृत काव्य के विकास में बीसवीं शताब्दी के जैन मनीषियों की रचनाओं का साहित्यिक और शैलीगत अनुशीलन करते हुए कलापक्ष को उद्घाटित किया है। कलापक्ष के विविध उपादानों - रस, छन्द, अलङ्कार, गुण, ध्वनि और रीतियों का प्रसङ्गानुकूल प्रयोग हुआ है। इन उपादानों के निकष पर परीक्षण करने से स्पष्ट होता है कि ये सभी रचनाकार काव्यशास्त्र के प्रयोगधर्मा, मर्मज्ञ उत्कृष्ट मनीषी हैं । आचार्य ज्ञानसागर जी जैसेनि:स्पृह जैन आचार्य की रचनाओं को पूर्ववर्ती किसी भी सर्वश्रेष्ठ कृतिकार के समकक्ष, प्रत्युत कतिपय क्षेत्रों में उनसे भी आगे प्रतिष्ठित किया जा सकता है। आचार्य विद्यासागरजी, आचार्य कुन्थुसागर जी, आर्यिका सुपार्श्वमती, साहित्याचार्य डॉ. पन्नालाल जी प्रभृति मनीषियों का भाव गाम्भीर्य, काव्यशास्त्रान्विति और तदनुरूप प्रस्तुतिकारण सर्वतोभावेन प्रशस्य हैं । इन सभी रचनाकारों ने अपने भाव प्रसूनों और रचना कौशल से वाग्देवी के भव्यप्रासाद का अभिराम अलङ्करण किया है ।
SR No.006275
Book Title20 Vi Shatabdi Ke Jain Manishiyo Ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendrasinh Rajput
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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