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________________ 1267 वृत्ति - कवि की रचनाओं में प्रसङ्गानुकूल अमिधा, लक्षणा एवं व्यञ्जना वृत्तियाँ खोजी जा सकती है । जिनोपदेश अमिधा प्रधान ग्रन्थ है 153 यह वृत्ति पद्मप्रभस्तवनम् में भी है 5. इसके साथ ही पद्मप्रभस्तवनम् के विशेषण प्रयोगों में लाक्षणिक प्रयोग होने से लक्षणा वृत्ति का सौन्दर्य उपस्थित हो गया है - जैसे - संसारदुःख, विश्वैकरूप, आदि 155 व्यञ्जना वृत्ति की झलक पद्मप्रभु के लिये प्रयुक्त परस्पर विरोधपूर्ण विशेषणों या नामों में घटित होती है, क्योंकि इसमें शब्दार्थ की प्रधानता न होकर, प्रतीयमान अर्थ की मुख्यता का आभास हआ है। विनाथ, पथ्वीपति. आत्मज्ञ, सर्वज्ञअनेक एक इत्यादिजिनोपदेश में लक्षणा, व्यञ्जना वृत्तियों की उपस्थिति नगण्य ही हैं । इस प्रकार पण्डित जवाहरलाल शास्त्री का साहित्य समस्त साहित्यिक एवं शैलीगत तत्त्वों से मण्डित है। पं. गोविन्द राय शास्त्री की रचना का साहित्यिक अध्ययन रसाभिव्यक्ति "बुन्देलखण्डं सद्गुरुः श्रीवर्णी च" - रचना में बुन्देलखण्ड के गौरवपूर्ण ऐतिहासिक महत्त्व की प्रशस्ति वीररस में निबद्ध है । यह वीर रस प्रधान कृति है - यस्य प्रताप तपनात् किल शत्रुवर्गो, धू कोपमः समभवद्, गिरिगहरस्थः । वीराग्रणीः सुभट संस्तुत् युद्धकारी, यत्राभवन्जिनमतो नृपतुङ्गधुङ्ग ॥57 इस प्रकार हम कह सकते हैं कि उक्त रचना बुन्देलखण्ड एवं श्रीवर्णी की गौरवशाली प्रशस्ति के रूप में होने के कारण वीररस प्रधान कृति है। छन्द विधान प्रस्तुत रचना का प्रथम एवं अन्तिम पद्य अनुष्टुप् छन्द में निबद्ध है। इस कृति के शेष सभी पद्य उपजाति छन्द में लिखे गये हैं । अनुष्टुप् छन्द में निबद्ध प्रथम पद्य द्रष्टव्य है - यस्यारण्येषु शार्दूला, नरसिंहाः पुरेषु च । वसन्ति तत्प्रियं भाति, विन्ध्येला मण्डलं भुविः ॥58 उपजाति छन्द में निबद्ध पद्य भी उदाहरणार्थ प्रस्तुत है - . तुलसी-बिहारी-रइधू कवीशाः, श्री मैथिली केशवदास तुल्याः । अङ्के हि यस्या नितरां विभान्ति, सरस्वती सा सफलैव यत्र । अलङ्कार "बुन्देलखण्ड सद्गुरु श्री वर्णी च" रचना में आद्योपान्त उपमा अलङ्कार विद्यमान है । इस अलङ्कार की उपस्थिति से रचना आकर्षक बन पड़ी है - महाराज छत्रसाल बुन्देलभूमि के मस्तकस्थ तिलक तुल्य है - ___स: वीरवों नृपवीर सिंहो, विन्ध्येल भालो तिलकेन तुल्यः 16 : अन्यत्र - एक पद्य में झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई को शक्ति की प्रतीक भवानी जैसे पराक्रमी बताया है। "लक्ष्मी भवानीव विचित्रवीर्या ।"461 इस प्रकार उक्त रचना में उपमा अलङ्कार सर्वत्र विद्यमान है।
SR No.006275
Book Title20 Vi Shatabdi Ke Jain Manishiyo Ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendrasinh Rajput
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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