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"अन्तस्तापं प्रशमितुमसौ नाथ ! सार्धं सखीभि, रम्यारामं व्रजति च यदा हन्त ! तत्रापि तस्याः । त्वत्सान्निध्यात् सुखित शिखिनो वीक्ष्य दुःखातिरेकात्,
मुक्ता स्थूलास्तरुकिसलयेष्वश्रुलेशाः पतन्ति ।। इस प्रकार "वचनदूतम्" काव्योचित समस्त लक्षणों से समन्वित भावप्रधान काव्य है । उपरोक्त अलङ्कारों के अलावा अन्य अलङ्कार भी इसमें खोजे जा सकते हैं ।
___ 'भाषा-शैली" वचनदूतम् की भाषा-शैली उच्चकोटि के साहित्यक गुणों से सम्पन्न है, यथा स्थान काव्यरीतियाँ भी उपस्थित हुई हैं - हिन्दी में अर्थ एवं पद्यानुवाद देकर विषय वस्तु को अधिक जनोपयोगी बनाया गया है । एक समस्यापूर्ति काव्य में कल्पनाओं को रूपायित करना कवि का कर्त्तव्य है, उसका निर्वाह शास्त्री जी ने गौरव के साथ किया है । नारी हृदय की अपार वेदनाओं से परिचित कराने के लिए कम संस्कृत जानने वालों के लिए भी यह काव्य समर्पित किया है - राष्ट्रभाषा में किया गया पद्यानुवाद सरल, सरस और कोमलकांत पदावली से परिपूर्ण है । कहीं-कहीं संस्कृत पद्यों में समासों के दर्शन भी किये जा सकते हैं । भाषा
और शैली की दृष्टि से काव्यरोचक और सर्वजनग्राह्य है। इस प्रकार वैदर्भी रीति का आद्योपान्त प्रभाव है । प्रसादगुण के अतिरिक्त माधुर्यगुण का निदर्शन और रसोद्रेक के प्रवाह में भावों का परिष्करण भी हो गया है । काव्यगुणों का निदर्शन द्रष्टव्य है
गुण "वचनदूतम्" काव्य में माधुर्यगुण का प्रभाव सर्वत्र परिलक्षित होता है । इस गुण की अभिव्यंजना के परिप्रेक्ष्य में कहीं मेघ, कहीं वायु, कहीं नाथ आदि सम्बोधनों का सहारा लिया गया है - राजुल की सखियाँ नेमि के पास जाकर राजुल का मार्मिक संदेश सुनाती है -
"स्वामिन् रात्र्या सह निवसनादेव चन्द्रश्चकास्ते, भास्वत्कान्त्या रविरपि तथा सत्तडागोऽब्जात्मक्ष्म्या । एवं मर्त्यः शुभ कुलजया धर्मपत्न्येति मत्वा,
तां स्वीकृत्याचर गृहिवृषं स्यास्ततस्त्वं मुनीन्द्रः 1123 "वचनदूतम्" में ओजगुण के दर्शन किये जा सकते हैं - यथा -
सर्वोत्कृष्टं तव वपुरिदं नाथ । सौम्याऽऽकृतिस्ते,
हे हे सत्वं प्रबल सुभटैरप्यजय्यं च शौर्यम् 124 ___ यहाँ पर नेमि के शौर्य और बल का उद्घोष किया गया है । वचनदूतम् में प्रसादगुण के अनेक उदाहरण मिलते हैं । सखियाँ नेमि को सरल शब्दों में समझाती हैं कि राजुल ने सब कुछ छोड़ दिया है किन्तु (नेमि को) नहीं छोड़ा है, आपको भी उसकी चिन्ता होना चाहिये -
सर्वमुक्तं परमिह तया त्वं न मुक्तोऽसि नाथ । वाक्यं नो नो धरति हृदये "नाथ ! कुत्रासि वक्ति ।" वच्मः किञ्चिद्विरम तपसो भो दयालो ! प्रबोध्य, तामित्वाऽत्र त्वमनुचरतात्वसर्वभद्रां तपस्याम् 125