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________________ 259 "रात्री रम्या ने भवति यथा नाथ । चन्द्रेण रिक्ता, . कासार श्री:कमल रहिता नैवं वा संविभाति । लक्ष्मी य॑क्ता भवति न यथा दानकृत्येन हीना, नारी मन्या भवतिं न तथा स्वामिना विप्रमुक्तां ॥16 - कवि ने पति द्वारा छोड़ी नारी की दीन स्थिति स्पष्ट करने के लिए अनेक सार्थक उपमाएँ प्रस्तुतं की हैं । उत्प्रेक्षा अलङ्कार भी इस काव्य में अनेक पंद्यों में प्रयुक्त हुआ है, जैसे - • "कष्टं कष्टं किमहमवदं साम्प्रतं मन्दिरं तत्, लक्ष्मीशून्यं पितृवननिभं भाति ते विप्रयोगात् । पूर्व यन्मे परिणयविधेरीदृशं रोचते स्म , शैषैः पुण्येर्हतमिव दिवः कान्तिमत्खण्डमेकम् ॥17 राजुल नेमि से आत्मविश्लेषण करती है कि हे नाथ ! जो राज भवन मुझे परिणय से पूर्व ऐसा लगता ता मानो मेरे ही अवशिष्ट पुण्य प्रताप से आकाश का गिरा हुआ कान्तिमय खण्ड ही है वही अब (वियोग की स्थिति में) आपके बिना शीभाहीन श्मशान जैसा प्रतीत होता है । रूपक अलङ्कार में शास्त्री जी ने अपनी अनूठी कल्पनाएँ अभिव्यक्त की हैं - रूपक के अन्यतम् प्रयोग "वंचनदूतम्' में मिलते हैं । राजुल अपने पिता से कहती है - हे पिता, इस त्याग के कारण अभुक्त मेरे सौभाग्य को मेरी सौत मुक्ति ने विरहमयी अग्नि में भस्म कर दिया है - मत्सौभाग्यं विरहदहने तात दग्धं सपंल्या, मुक्त्याऽभुक्तं विगलितमिदं नैव वाञ्छामि भूयः (18 इस प्रकार रूपक अलङ्कार प्रस्तुत काव्य में अनेक पद्यों में प्रयुक्त हुआ है । अर्थान्तरन्यास अलङ्कार भी वचनदूतम् के काव्य सौन्दर्य की अभिवृद्धि करने में सहायक है । अर्थान्तरन्यास अलङ्कार की छटा अधोलिखित पद्य में परिलक्षित है -- नारी प्रायो विरहविधुरा दुःखंभागेव · बुद्धवा, आगच्छेच्चेदिह मम गृहं बोधनार्थं सं आर्यः" । मार्गः शुष्क स्तरणिकिरणो मेघ ! कार्यों न चेत्सः, प्रत्यावृत्तस्त्वयि कररुधि - स्यादनल्पाभ्यसूयः । हृदय में स्थिर असह्य दुःख भी दूसरों के सामने प्रकट कर देने पर वह अल्पसह्य | हो जाता है, इसी भाव की अभिव्यक्ति दृष्टव्य है - ___ "प्रोक्तं स्वीयं बृहदपि यतो दुःखमल्पत्वमेति ।''420 "वचनदूतम्" काव्य में प्रेम की गहराइयों और मार्मिक भावों से पूर्ण हैं। स्मरण अलंकार के दृश्य भी सजीव रूप से अंकित हुए हैं । स्मरण अलङ्कार का लक्षण है "यथाऽनुभवमर्थस्य दृष्टे तत्सदृशे स्मृतिः (27 स्मरणम् - किसी पूर्वानुभूत वस्तु की, उसके समान किसी दूसरी वस्तु के अनुभव से उबुद्ध स्मृति ही, स्मरण अलंकार कहलाती है । राजुल की सखियाँ नेमि के पास जाकर कहती हैं - किं राजुल बगीचे में जाकर आपके | पास से गये हुए मयूरों को देखकर ख्यालों में डूब जाती है -
SR No.006275
Book Title20 Vi Shatabdi Ke Jain Manishiyo Ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendrasinh Rajput
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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