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इस प्रकार साहित्यिक दृष्टि से "वचनदूतम्" काव्य अन्यतम है ।
आ. ज्ञानसागर - स्तुति
साहित्यिक एवं शैलीगत अध्ययन • रस - इस भक्तिभावपूर्ण स्तोत्र में आद्योपान्त शाञ्चितरस विद्यमान है । एक पद्य उदाहरणार्थ द्रष्टव्य है -
ताखण्यं विगणैरयगण्य कृतिनाऽरण्यापगाम्भः सर्म, आयुष्य जल लोन बिन्दु चपलं संचिन्त्य संख्यावता । हित्वा सर्वसुखं विहाय जननी तातं तथा बान्धवान्,
स्वात्मोत्थान कृते दधौ यमियमं कर्मारिर्सवारणम् ।।26 इसमें आचार्य ज्ञानसागर द्वारा माता-पिता, भाई-बन्धु, और सांसारिक सुखों को त्यागकर, वन में जाकर वैराग्य धारण करने का विवेचन है । यहाँ रस के आश्रय और आलम्बन, आचार्य श्री हैं, भौतिकसुख एवं पारिवारिक ममता की असारता एवं मोहादि बन्धन उद्दीपन विभाव हैं । वन प्रस्थान करना, आसन लगाना आदि अनुभाव हैं और निर्वेद, समता, आदि सञ्चारी भाव हैं।
छन्द कवि ने ग्यारह पद्यों के इस लघुस्तोत्र काव्य में 9 पद्यों में शार्दूलविक्रीडित एवं एक पद्य में मन्दाक्रान्ता तथा अन्तिम पद्य में अनुष्टुप छन्द का प्रयोग किया है । शार्दूलविक्रीडित छन्द का एक उदाहरण निदर्शित है -
गंगोत्तुंगतरंगसंगिसलिलप्रान्तस्थितो विश्रुतः, श्री स्याद्वाद पदांकितो भुविजनैर्मान्योऽस्ति विद्यालयः । तत्राधीत्य विशिष्ट संस्कृतमयी भाषाभूदद्भुतः,
विद्वान्मान्य विशिष्ट काव्य रचना मूलेन्दुना स्तूयते ।।27 इसमें स्यावाद संस्कृत विद्यालय का गौरव पूर्ण वर्णन करते हैं । यही आचार्य श्री के विद्यार्जन का केन्द्र है । मन्दाक्रान्ता का प्रयोग देखिये -
चित्रं चित्रं तव मुनिपते ! वृत्तमेतत्पवित्रं, यत् त्वं गोभिः कुवलयमिदं सन्तनोषि प्रबुद्धं । एवं कृत्ये वद कथमिर्गे सूरभावं विभर्षि ।
सूरितत्त्वे वा भवति भवतः कौमुदः किं प्रबुद्धः ।128 इस पद्य में आचार्य श्री के विचित्र पवित्र जीवनवृत्त को सर्वोत्कृष्ट निरूपित करते हुए कवि ने अपनी अल्पज्ञता ज्ञापित की है । इस स्तोत्र का अंतिम श्लोक अनुष्टुप् छंद में है, जिसमें रचनाकार ने स्तोत्र रचने का प्रयोजन भी स्पष्ट किया है -
ज्ञानसिन्धोर्मुनीन्द्रस्य भक्त्या मूलेन्दुना कृता ।
संस्तुति सर्वजीवानां कुर्यान्मङ्गलमज्जसा ॥29 इस प्रकार कवि ने प्रसंणोपत्ता छन्द योजना प्रतिपादित की है।