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- 252इसी प्रकार विवेच्य रचना के विविध पद्यों में मालिनी, शालिनी, द्रुतविलम्बित, तोटक, शार्दूलविक्रीडित प्रभृति 17 प्रकार के छन्द प्रयुक्त हुए हैं।
अलङ्कारच्छटा साहित्याचार्य पण्डित जी अलङ्कत शैली के प्रमुख अभिनव कवि हैं। उनके ग्रन्थत्रय में अलङ्कारों की मनोहर छटा द्रष्टव्य है । प्रायः प्रत्येक श्लोक में अलङ्कार विद्यमान है । केचित् श्लोकों में अनेक अलङ्कारों का समावेश स्वतः हो गया है । इनके ग्रन्थों में शब्दालङ्कार और अर्थालङ्कार दोनों का प्रयोग पर्याप्त में हुआ है । अनुप्रास के प्रयोग से काव्य में पदलालित्य आ गया है । तथा अर्थालङ्कारों की स्वाभाविक योजना के कारण सरसता आ गयी है । उपमा, उत्प्रेक्षा, समासोक्ति, रूपक अर्थान्तर न्यास, स्वाभावोक्ति, काव्यलिङ्ग, निदर्शना, आदि का समुचित और सरस प्रयोग किया गया है। पं. जी द्वारा अत्यन्त कुशलता पूर्वक प्रयुक्त अलंकारों में नवीनता एवं मनोहरता का समावेश है । "सम्यकचारित्र चिन्तामणि'' में प्रयुक्त कुछ अलङ्कारों के उदाहरण निम्नलिखित हैं।
अनुप्रास पृथिवी पृथिवीकायः पृथिवी कायिक एव च ।
पृथिवी जीव इत्येतत् पृथिवीकाय चतुष्टयम् ॥79 उपर्युक्त पद्य में प, थ, व, क, एवं य वर्णों की आवृत्ति होने के कारण अनुप्रास अलङ्कार
श्लेष अलङ्कार का प्रयोग अनेक पद्यों में हुआ है । उदाहरणार्थ एक पद्य प्रस्तुत है
मूलतोऽविद्यमानेऽर्थे तत्सदृशो निरूपणम् ।
अश्वाभावे खरस्याश्व कथनं क्रियते यथा ॥80 __ अर्थात् मूल वस्तु के न रहने पर उसके सदृश वस्तु का कथन करना जैसे अश्व के न रहने पर गृहस्थ को भार ढ़ोने की अपेक्षा अश्व कहना । "अश्व" में श्लेष की अभिव्यञ्जना है।
इस ग्रन्थ में यमक अलङ्कार का बहुत प्रयोग हुआ है - ररक्ष कुन्थुप्रमुखान् सुजीवान् दयाप्रतानेन दयालयो यः ।
स कुन्थुनाथो दयया सनाथः करोतु मां शीघ्रमहो सनाथम् ॥81
उक्त पद्य में “कुन्थु" शब्द की दो बार आवृत्ति हुई है - प्रथम बार कुन्थु शब्द का अर्थ "जीव विशेष" से है और दूसरी बार “कुन्थु" शब्द का अर्थ सत्रहवें तीर्थङ्कर कुन्थुनाथ जी हैं । अतः उक्त पद में यमकालङ्कार प्रयुक्त हुआ है।
शब्दालङ्कारों की भांति ही इस ग्रन्थ में अर्थालङ्कारों का विपुल प्रयोग हुआ है। उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, दृष्टान्त, अर्थान्तरन्यासादि अलङ्कारों की प्रचुरता ने काव्य सौन्दर्य में श्री वृद्धि की है - उपमा का नयनाभिराम प्रयोग द्रष्टव्य है -
यथा कृषीवलाः क्षेत्ररक्षार्थं परितो वृतीः ।
कुर्वन्ति व्रत रक्षार्थं समितीश्च तथर्षयः ॥2 रूपक की छटा अधोलिखित पद्य में विद्यमान है -